Friday, November 5, 2021

क्रमबध्दपर्याय की व्यवहारिकता

 क्रमबध्दपर्याय की व्यवहारिकता


क्रमबध्दपर्याय जैनधर्म के ग्रंथो के प्रत्येक अनुयोग में व्याप्त तो है ही , साथ ही साथ हरेक ग्रंथो की प्रत्येक पंक्ति पंक्ति में तिल में तेल की भांति अनुस्यूत भी है| जिसको पढकर हमारा  जीवन निर्भार और सहज तो होता ही है साथ ही साथ हमारे मन की आकुलता-व्याकुलता भी अत्यल्पया नष्ट ही हो जाती है| निश्चितया यही परिणाम रहा होगा कि हमारे संस्कृत और हिंदी साहित्य और उसको लिखने वाले कवि भी इससे अछूते नहीं रह पाये है और लोगों का जीवन निर्भार करने हेतु वे अपने साहित्य मे इस सिद्धांत को लेकर आए | मैं तो कहता हूँ चाहे वह कोई भी दार्शनिक हो अगर निरपेक्ष होकर जगत को देखेगा तो वह पायेगा कि- सम्पूर्ण विश्व और उसका प्रत्येक कार्य बिल्कुल सुनियोजित है।जैसे- एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईस्टीन ने तो कह ही दिया कि- कोई भी कार्य अकस्मिक नवीन नहीं होता वे पहले से ही अपने समय पर निश्चित है उसको हम कालचक्र (समयसारणी)पर देख सकते है। अब भले वैज्ञानिक जगत इस बात का ठोक-पीट कर समर्थन न कर किंतु इतना तो निश्चित है कि- आइंस्टीन जैसे बडे वैज्ञानिक के इस कथन से सम्पूर्ण वैज्ञानजगत् इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता।

                                      न, केवल कवि अपितु हमारे जीवन में,बोलचाल में और तो और सूक्ति,मुहावरे तथा लोकोक्ति में भी क्रमबध्दपर्याय ने अपना स्थान विशेष स्थापित कर लिया है जिसको हम प्रतिदिन प्रयोग करते तो है चाह कर भी उसको साहित्य से नहीं निकाल क्योंकि उसको निकालना अपने इतिहास पर कुठाराघात करना है किन्तु उसपर पूर्णतया श्रद्धान‌‍ नहीं कर पा रहे है न चाहते हुए भी कडवी औषधि समान न तो  हम उसे पूर्णता निगल पा रहें है न ही उगल पा रहे है।
क्रमबद्ध पर्याय के उगलने से अनंत संसार का रोग है और  निगलने में निरोगता और निर्भारता।किंतु कारण यही है कि- हमारी बुद्धि पर कर्तृत्व इतना घरकर गया है कि –  इस सिद्धांत पर हम अमल नहीं कर पा रहे है | चलिये हम जानते है कि किन-किन रूपों में हम क्रमबध्दपर्याय से जुड़े हुए है –

     एक बात और जो हमे ध्यान देना चाहिए कि - संस्कृत आदि साहित्य के कवियों ने कही अपने द्वारा उपार्जित किए भाग्य से तो कही भगवान की कृपा से सारे कार्य होते है (जिसकी आलोचना इस लेख के उपांत्य मे कि जावेगी) लेकिन  एक बात सुस्पष्ट है कि -तू जो इस दुनिया का अपने आपको कर्ता मान बैठा है या कहे कि घर -घर मे जो आज  एक-एक कर्ता बना बैठा है उसको तो सभी कवियों ने जड़ मूल से उखाड़ फेका है | इसके बहव प्रमाण इस प्रकार है -  

•      संस्कृत कवियों कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय –
अत सर्व प्रथम हम त्रिशतककार भर्तृरिहरि कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय को विचारकर देखते है-

    १.   “ रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता-
             मम्भोदा बहवो बसंति गगने सर्वेऽपि नैतादृशा |  
             केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
      यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः|५१||” 

  २.    “पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्
         नोऽलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् |
          धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्
   यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः ||९३||”

  ३.नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि येभ्यः प्रभवति ||९४||”

  ४.    “ तस्मै नमः कर्मणे ||९५||

  
५.  “भाग्यानि पुर्वतापसा खलु सञ्चितानि ,           
  काले फलन्ति पुरूषस्य यथैव वृक्षा ||९६||”

  ६.   “रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि||९७||”    

   ७.   ”नाभाव्यम् भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कृतः ||१०१||”  ...आदि...

   कवि भर्तृहरि के जीवन मे क्रमबध्यपर्याय इतने भली प्रकार घर कर गई थी कि नीति शतक मे भी इसको बतलाना चाह रहे थे | जहा एक ओर वे अधिकांशतया वित्तोपार्जन की महिमा बताते है तो अन्त्य मे कह देते है कि धन कि प्राप्ति भाग्य से ही संभव है, अन्य प्रकार नहीं |

            “ तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः |
             भाग्यम् परम् नैव ददाति किंचित् |
             अहिर्निशम् वर्षति वारिवाह ||
              तथापि पत्रा त्रितय:पलास ||”
तथाहि-
 
सुखस्य दुःखस्य कोऽपि दाता |
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ||
अहं करोमीति व्यथाभिमानः |
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो ही लोकः ||”

पंचतंत्र -

        “अरक्षतिम् तिष्ठति दैवरक्षितं सुररक्षितं दैवहतम् विनश्यति |

        जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति||” - (मित्रभेद ,20) पंचतंत्र 

     “ हि भवति यन्न भाव्यं भवति भाव्यं विनाऽपि यत्नेन |

     करतालगतमपिनश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,१०)

       “विधाता रचिता या सा लालटेऽक्षरमालिका |
         तां मार्जयितुं शक्ताः स्वबुद्ध्याऽप्यतिपण्डिताः ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,१८३)

    “ करोतु विधुरे किं वा विधौ पौरूषम् ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,८८)

   विनाशकाले विपरीतबुद्धि”
गति अनुसार मति हो जाती है ।

    

•      हिंदी कवियों कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय –                                
1. “तुलसी असमय के सखा , धीरज धर्म विवेक||
       साहित साहस सत्यव्रत , राम भरोसे एक ||”

2. “तुलसी भरोसे राम के निर्भय होके

3. “अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम |
  दास कबीरा कह गये सबके दाता राम ||”

 

1. “जो जैसी करनी करे, सो तैसा फल होय |
       बोये पेड़ बबूल का तो आम कहा से होय ||”

 


•      लोकोक्ति- 1.“जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना”

      2. ‘‘दाने दाने लिखा है खाने वाले का नाम’’

        3. “माली सींचे सौ घना,ऋतु आये फल होय’’

       4. “बिन मांगे मोती मिले ,मांगे मिले न भीख”

       5. “जो करेगा सो भरेगा”

       6. “जो होगा देखा जायेगा”

       7. “जो बीत गयी सो बीत गयी”

       8. “जो होगा अच्छा होगा “

       9. “जो जस करी सो तस फल चाखा” 

      10. “जा को राखे साइया , मार सके  न कोई ||”

     

      11. “कोश कोश पर पानी बदले , पांच कोष पर पानी ||”

     12.  “हुहिये वही ,जो राम रचि राखा ||” 

 

•      लोकन्याय-  यदि आप ककतालीय न्याय जैसे अनेक न्यायों पर भी सूक्ष्मता से विचार करेंगे तो आप पायेंगे कि- यह सब क्रमबद्ध पर्याय की ही सिद्धि करते है।
ऐसे कई न्याय क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि करते है।
अंततः यत्र तत्र सर्वत्र यद्वा-तद्वा सम्पूर्ण विश्व क्रमबद्ध पर्यायों से ही निर्वृत है।सभी पदार्थ क्रमबद्ध पर्यायों से अनुस्युत है एवं वाणी स्फोटवाद से भी क्रमबद्धता की सिद्धि है।      
     जैसे न्याय का प्रमुख विषय सामान्य और विशेष सर्वज्ञ सिद्धि होती है वैसे ही अध्यात्म का प्रमुख विषय सामान्य और विशेष क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि है।छहो द्रव्य अपने अपने आत्मपरिणामों से उपजते हुए तद्रूप है(महासत्ता) यह सामान्य क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि और जीवद्रव्य या कोई भी द्रव्य विशेष अपने अपने आत्मपरिणामों से उपजते हुए तद्रूप है (अवान्तरसत्ता)यह विशेष क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि है।     इसके और भी पहलू हो सकते है जो विचारणीय है। 
                  - आप्त जैन

सिरी भूवलय

 हमारे भारत के ज्ञान भण्डार में इतनी जबरदस्त एवं चमत्कारिक बातें छिपी हुई हैं, कि उन्हें देख-सुन-पढ़ कर हमारा मन हक्का-बक्का हो जाता है...! हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर यह विराट ज्ञान हमारे पास कहाँ से आया. फिर अगला विचार आता है कि जब उस प्राचीनकाल में यह जबरदस्त ज्ञानभंडार हमारे पास था, तो अब क्यों नहीं है..? यह ज्ञान कहाँ चला गया..? ऐसे प्रश्न लगातार हमें सताते रहते हैं.


इसी श्रेणी का एक अदभुत ग्रन्थ है – ‘सिरी भूवलय’ अथवा श्री भूवलय. जैन मुनि आचार्य कुमुदेंदु द्वारा रचित. जब कर्नाटक में राष्ट्रकूटों का शासन था, जब मुस्लिम आक्रांता दूर-दूर तक भारत में नहीं थे और सम्राट अमोघ-वर्ष नृपतुंग (प्रथम) का शासनकाल था, उस कालखंड का यह ग्रन्थ है. अर्थात यह ग्रन्थ सन ८२० से ८४० के बीच कभी लिखा गया है.

पिछले एक हजार वर्षों से यह ग्रन्थ गायब था. कहीं-कहीं इस ग्रन्थ का उल्लेख मिलता था, परन्तु यह ग्रन्थ विलुप्त अवस्था में ही था. यह ग्रन्थ कैसे मिला, इसके पीछे भी एक मजेदार किस्सा है –

राष्ट्रकूट राजाओं के कालखंड में किसी मल्लीकब्बेजी नामक स्त्री ने इस ग्रन्थ की एक प्रति की नक़ल बना ली और अपने गुरु माघनंदिनी को शास्त्रदान किया. इस ग्रन्थ की प्रति धीरे-धीरे एक हाथ से दूसरे हाथ होते हुए सुप्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक धरणेन्द्र पंडित के घर पहुँची. धरणेन्द्र पंडित, बंगलौर - तुमकुर रेलवे मार्ग पर स्थित डोड्डाबेले नामक छोटे से गाँव में रहते थे. इस ग्रन्थ के बारे में भले ही उन्हें अधिक जानकारी नहीं थी, परन्तु इसका महत्त्व उन्हें अच्छे से मालूम था. इसीलिए वे अपने मित्र चंदा पंडित के साथ मिलकर ‘सिरी भूवलय’ नामक ग्रन्थ पर कन्नड़ भाषा में व्याख्यान देने लगे.

इन व्याख्यानों के कारण, बंगलौर के ‘येलप्पा शास्त्री’ नामक युवा आयुर्वेदाचार्य को यह पता चला कि यह ग्रन्थ धरणेन्द्र शास्त्री के पास है. येलप्पा शास्त्री ने इस ग्रन्थ के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. इसलिए उनका निश्चय पक्का था कि उन्हें यह ग्रन्थ प्राप्त करना ही है. ऐसे में इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति को हासिल करने के लिए येलप्पा शास्त्री ने डोड्डाबेले जाकर धरणेन्द्र शास्त्री की भतीजी से विवाह भी किया.

आगे चलकर १९१३ में धरणेन्द्र शास्त्री का निधन हो गया. अपने जीवन का अधिकाँश समय विद्या अभ्यास को देने के कारण उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब हो चुकी थी. इसलिए उनके पुत्र ने, धरणेन्द्र शास्त्री की कुछ वस्तुओं को बेचने का निर्णय लिया. इन्हीं वस्तुओं में ‘सिरी भूवलय’ नामक ग्रन्थ भी था. ज़ाहिर है कि येलप्पा शास्त्री ने खुशी – खुशी यह ग्रन्थ खरीद लिया. इसके लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने भी बेचने पड़े. परन्तु यह ग्रन्थ हाथ लगने के बावजूद शास्त्रीजी को इस ग्रंथ का गूढ़ार्थ समझ में नहीं आ रहा था. १२७० पृष्ठों के इस हस्तलिखित ग्रन्थ में सब कुछ रहस्यमयी था. आगे चलकर १९२७ में प्रजग में दी गई जानकारी के आधार पर प्रयास करते-करते, उसमें दी गई सांकेतिक जानकारी का तोड़ निकालने में उन्हें लगभग चालीस वर्ष लग गए. सन १९५३ में कन्नड़ साहित्य परिषद् ने इस ग्रन्थ का पहली बार प्रकाशन किया. ग्रन्थ के संपादक थे – येलप्पा शास्त्री, करमंगलम श्रीकंठाय्या एवं अनंत सुब्बाराव. इन तीनों में अनंत सुब्बाराव एक तकनीकी व्यक्ति थे. इन्होने ही पहले कन्नड़ टाईपराइटर का निर्माण किया था.

आखिर इस ग्रन्थ में इतना महत्त्वपूर्ण क्या था कि जिसके लिए कई लोग अपना पूरा जीवन इस पर निछावर करने के लिए तैयार थे...?

यह ग्रन्थ, अन्य ग्रंथों की तरह एक ही लिपि में नहीं लिखा गया है, अपितु अंकों में लिखा गया है. यह अंक भी १ से ६४ के बीच ही हैं. ये अंक अथवा आँकड़े एक विशिष्ट पद्धति से पढ़ने पर एक विशिष्ट भाषा में, विशिष्ट ग्रन्थ पढ़ सकते हैं. ग्रन्थ के रचयिता अर्थात जैन मुनी कुमुदेंदू के अनुसार इस ग्रन्थ में १८ लिपियाँ हैं और इसे ७१८ भाषाओं में पढ़ा जा सकता है.

यह ग्रन्थ अक्षरशः एक विश्वकोश ही है. इस एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ छिपे हुए हैं. रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, अनेक जैन दर्शन के ग्रंथ.. सभी कुछ इस एक ग्रन्थ में समाहित हैं. गणित, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, इतिहास, चिकित्सा, आयुर्वेद, तत्वज्ञान जैसे अनेकानेक विषयों के कई ग्रन्थ इस एक ही ग्रन्थ में पढ़े जा सकते हैं.

इसी ग्रन्थ में कहीं ऐसा उल्लेख है कि इसमें १६००० पृष्ठ थे, लेकिन उसमें से केवल १२७० पृष्ठ ही अब उपलब्ध हैं. कुल मिलाकर इसमें ५६ अध्याय थे, परन्तु अभी तक केवल तीन अध्यायों का कुछ कुछ अर्थ निकालना ही संभव हुआ है. १८ लिपियों, एवं ७१८ भाषाओं में से अभी तक केवल कन्नड़, तमिल, तेलुगु, संस्कृत, मराठी, प्राकृत इत्यादि भाषाओं में ही यह ग्रन्थ पढ़ा जा सकता है. किसी विशाल कंप्यूटर विश्वकोश की तरह ही इस ग्रन्थ का स्वरूप है. जब भी इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण संहिता का रहस्य खुलेगा, तभी इस की प्रमुख विशेषताएँ और भी स्पष्ट हो सकेंगी.

यह ग्रन्थ लिपि में नहीं, बल्कि अंकों में लिखा गया है, इसमें केवल १ से लेकर ६४ तक के अंकों का ही उपयोग किया गया है. प्रश्न उठता है कि कुमुदेंदू मुनि ने केवल ६४ तक के अंक ही क्यों लिए? क्योंकि ६४ एक ध्वनि संकेत है, जिसमें ह्रस्व, दीर्घ एवं लुप्त मिलाकर २७ स्वर; क, च, न, प जैसे २५ वर्गीय वर्ण; य, र, ल, व, जैसे अवर्गीय व्यंजन इत्यादि मिलाकर ६४ संख्या आती है.

ये संख्याएँ २७ x २७ के चौकोन में जमाई जाती हैं. इस प्रकार ये ७२९ अंक जिस चौकोन में आते हैं, वे ग्रन्थ में दिए गए निर्देशानुसार नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे, आड़े-सीधे सभी प्रकार से कैसे भी लिखे जाएँ तो वह उस भाषा के वर्णक्रमानुसार लिखे जा सकते हैं (उदाहरणार्थ – यदि ४ अंक हुआ तो हिन्दी का वर्ण ‘घ’ आएगा, क, ख, ग, घ के अनुसार), इस प्रकार छंदोबद्ध काव्य अथवा धर्म, दर्शन, कला जैसे अनेक प्रकार के ग्रंथ तैयार हो जाते हैं.

कितना विराट है यह सब...! और कितना अदभुत भी...! हमें केवल एक छोटा सा ‘सुडोकू’ चौकोर तैयार करने के लिए कंप्यूटर की सहायता लेनी पड़ती है और इस ग्रन्थ को लगभग हजार, बारह सौ वर्षों पूर्व एक जैन मुनी ने अपनी कुशाग्र एवं अदभुत बुद्धि का परिचय देकर केवल अंकों ही अंकों के माध्यम से विश्वकोश तैयार कर दिया...!

यह पढ़कर सब कुछ तर्क से परे लगता है...!! इस ग्रन्थ का प्रत्येक पृष्ठ २७ x २७ अर्थात ७२९ अंकों का बहुत ही विशाल चौकोर है. इस चौकोर को चक्र कहा जाता है. इस प्रकार के १२७० चक्र फिलहाल उपलब्ध हैं. इन चक्रों में ५६ अध्याय हैं और कुल श्लोकों की संख्या छः लाख से अधिक है. इस ग्रन्थ के कुल ९ खंड हैं. वर्तमान में उपलब्ध १२७० चक्र पहले खंड के ही हैं, जिसका नाम है – ‘मंगला प्रभृता’. ऐसा कहा जा सकता है कि यह एकमात्र उपलब्ध खंड ही बाकी के ८ खण्डों की विराटता का दर्शन करवा देता है. अंकों के स्वरूप में इसमें १४ लाख अक्षर हैं. इनमें से ही ६ लाख श्लोक तैयार होते हैं.

इस प्रत्येक चक्र में कुछ ‘बंध’ हैं. ‘बंध’ का अर्थ है इन अंकों को पढ़ने की विशिष्ट पद्धति अथवा एक चक्र के अंदर अंकों को जमाने की पद्धति. दूसरे शब्दों में कहें तो ‘बंध’ का अर्थ है वह श्लोक, अथवा ग्रन्थ पढ़ने की चाभी (अथवा पासवर्ड). इस ‘बंध’ के कारण ही हमें उन चक्रों के भीतर मौजूद ७२९ अंकों का पैटर्न समझ में आता है और फिर उस सम्बन्धित भाषा के अनुसार वह ग्रन्थ हमें समझ में आने लगता है. इन बंध के प्रकार भी भिन्न-भिन्न हैं. जैसे – चक्रबंध, नवमांक-बंध, विमलांक-बंध, हंस-बंध, सारस-बंध, श्रेणी-बंध, मयूर-बंध, चित्र-बंध इत्यादि.

पिछले अनेक वर्षों से इस भूवलय ग्रन्थ को ‘डी-कोड’ करने का कार्य चल रहा है. अनेक जैन संस्थाओं ने यह ग्रन्थ एक प्रकल्प के रूप में स्वीकार किया है. इंदौर में जैन साहित्य पर शोध करने के लिए ‘कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ’ का निर्माण किया गया है, जहाँ पर डॉक्टर महेंद्र कुमार जैन ने इस विषय पर बहुत कार्य किया है. आईटी क्षेत्र के कुछ जैन युवाओं ने इस विषय पर वेबसाईट तो शुरू की ही है, परन्तु साथ ही कंप्यूटर की सहायता से इस ग्रन्थ को ‘डी-कोड’ करने का काम चल रहा है. बहुत ही छोटे पैमाने पर उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है.

परन्तु फिर भी... आज जबकि इक्कीसवीं शताब्दी के अठारह वर्ष समाप्त हो चुके हैं, दुनिया भर के जैन विद्वान इस ग्रन्थ पर काम कर रहे हैं... आधुनिकतम कंप्यूटर अल्गोरिथम का उपयोग करने के बावजूद...

इस ग्रन्थ का रहस्य अभी तक पता नहीं चल रहा है..! अभी तक ५६ में से केवल तीन अध्याय ही अंशतः ‘डी-कोड’ हो सके हैं... तो फिर आज से हजार, बारह सौ वर्ष पूर्व, आज के समान उपलब्ध आधुनिक साधनों के अभाव में भी जैन मुनी कुमुदेंदू ने इतना क्लिष्ट ग्रन्थ कैसे तैयार किया होगा..? दूसरा प्रश्न है कि मुनिवर्य तो कन्नड़ भाषी थे, फिर उन्होंने अन्य भाषाओं का इतना कठिन अलगोरिदम कैसे तैयार किया होगा? और सबसे बड़ी बात यह है कि मूलतः इतनी कुशाग्र एवं विराट बुद्धिमत्ता उनके पास कहाँ से आई..?

‘इंडोलॉजी’ के क्षेत्र में भारत से एक नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है, श्री एस. श्रीकांत शास्त्री (१९०४-१९७४) का. इन्होंने ‘भूवलय’ ग्रन्थ के बारे में लिखा है कि – यह ग्रन्थ कन्नड़ भाषा, कन्नड़ साहित्य, साथ ही संस्कृत, प्राकृत, तमिल, तेलुगु साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. यह ग्रन्थ भारत और कर्नाटक के इतिहास पर प्रकाश डालता है. भारतीय गणित का अभ्यास करने के लिए यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थ है. भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र एवं जीव विज्ञान के विकास का शोध करने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है. साथ ही यह ग्रन्थ शिल्प एवं प्रतिमा, प्रतीकों इत्यादि के अभ्यास के लिए भी उपयुक्त है. यदि इसमें रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, ऋग्वेद एवं अन्य कई ग्रंथों की डी-कोडिंग कर सकें तो उनकी एवं वर्तमान में उपलब्ध अन्य ग्रंथों की तुलना, शोध की दृष्टि से काफी लाभदायक सिद्ध होगी. नष्ट हो चुके अनेक जैन ग्रन्थ भी इस सिरी भूवलय में छिपे हो सकते हैं.

जब इस ग्रन्थ की जानकारी भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को मिली, तब उनके सबसे पहले उत्स्फूर्त उद्गार यही थे कि – ‘यह ग्रन्थ विश्व का आठवाँ आश्चर्य है..’

एक दृष्टि से यही सच भी है. क्योंकि इस संसार के किसी भी देश में कहीं भी कूटलिपि में लिखा गया ‘एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ’ जैसा अदभुत विश्वकोश नहीं मिलता. यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारतीय ज्ञान का यह अनमोल खजाना कई वर्षों तक हमारी जानकारी में नही था।

क्रमबद्ध पर्याय और छोटे दादा

 वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्रतिपादक क्रमबद्धपर्याय और डॉ भारील्ल -


● इस पंचम काल में जो स्थान आचार्य समंत भद्र को सर्वज्ञसिद्धि करने में प्राप्त है जो स्थान दिगम्बर परम्परा को पुनर्स्थापित करने के लिए आचार्य कुंदकुंद को प्राप्त है जो स्थान न्याय को चरम सीमा तक ले जाने के लिए आचार्य अकलंक देव को प्राप्त


है वही स्थान क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि करने के लिए और उस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी और आदरणीय छोटे दादा को प्राप्त है


• पण्डित प्रकाशचन्द 'हितैषी'.


'क्रमबद्धपर्याय' का नाम अर्ध शताब्दी पूर्व सुनने को नहीं मिलता था यद्यपि जिनागम में क्रमनियमित शब्द से आचार्य अमृतचन्द्र


ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है किन्तु यह विषय बहुत चर्चित विषय नहीं था


जो सोच फिकर में लगता है, वह अपनी ताकत खोता है। चेष्टाएँ थक कर रह जाती, जो होना है सो होता है ॥


• लेखक ने उस प्रसंग की चर्चा भी की है, जिसके कारण उसे यह समझने का बनाव बना, लेखक स्वयं लिखता है -


"मेरी समझ में यह कैसे आई इसकी भी एक कहानी है, इस प्रसंग पर उसके उल्लेख करने का लोभ संवरण कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। बात यों हुई कि हम उत्तर प्रदेश के एक गाँव बबीना कैन्ट (झाँसी) में दुकान करते थे। यह बात ईस्वी सन् १९५६ के दशहरे के आस-पास की है। मेरे अग्रज पण्डित रतनचन्द शास्त्री दुकान का सामान लेने झाँसी गए थे। वहाँ एक व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया कि 'जब केवली भगवान ने जैसा देखा-जाना कहा है, वैसा ही होगा, उसमें कोई फेरबदल सम्भव नहीं है, तो फिर पुरुषार्थ कहाँ रहा? जब हम कुछ कर ही नहीं सकते तो फिर हम कुछ करें ही क्यों?' प्रश्न ने ही उनके हृदय को झकझोर डाला। वे स्तब्ध रह गए उसके उत्तर में उन्होंने यद्वा तद्वा कुछ भी कहकर पाण्डित्य प्रदर्शन न करके यही कहा 'भाई। तुम बात तो ठीक ही कहते हो, परन्तु में अभी इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकता, अगले शनिवार को आऊँगा, तब बात करूंगा।' वह तो चला गया, पर वे रास्ते भर विचार करते रहे। आते ही कोई और बात किए बिना मुझसे सीधा वही प्रश्न किया में भी विचार में पड़ गया। परस्पर चर्चा होती रही, पर बात कुछ जमी नहीं शाम को प्रवचन में भी जब मैंने यही चर्चा की, तब एक अभ्यासी बाई बोली- इसमें क्या है? यह तो कानजी स्वामी की क्रमबद्धपर्याय है। उससमय तक हमने कानजीस्वामी काबल से आगम में से जो जैनदर्शन के अनमोल सिद्धान्त निकाले; क्रमबद्धपर्याय' भी उनमें से एक सिद्धान्त है, जिसे उन्होंने अपने १३ प्रवचनों के माध्यम से विस्तार से समझाया है, जिसके पुस्तकाकार प्रकाशन का नाम 'ज्ञान स्वभाव ज्ञेय स्वभाव है। 'क्रमबद्ध पर्याय' जैसे सिद्धान्त के उद्घाटक गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने जिस पुस्तक की प्रसन्नता से भरी सभा में बारम्बार प्रशंसा की हो, स्वयं ने बारम्बार पढ़ा हो और अपने श्रोताओं को पढ़ने की तथा घर-घर पहुँचाने की प्रेरणा दी हो, उस कृति के बारे में अब कहने को शेष रह ही क्या जाता है?


• सर्वप्रथम स्वामीजी के दर्शन तब हुए, जब वे १९५७ ई. में शिखरजी की यात्रा पर निकले थे। बबीना पड़ाव पर बिना कार्यक्रम के ही उन्हें सड़क पर बलात् रोक लिया था। वहाँ हमने घंटों पूर्व ही स्टेज बनाकर रखा था और वहाँ सारी समाज उपस्थित थी। स्वामीजी ने वहाँ सिर्फ पाँच मिनट का मांगलिक प्रवचन ही किया था। उन्हीं के साथ हम सब भी सोनागिरी चले गये तीन दिन तक वहाँ उनके प्रवचनों का लाभ सपरिवार लिया। उनसे सामान्य चर्चा भी की उसके कुछ दिनों बाद ही चाँदखेड़ी में उनके प्रवचनों का लाभ मिला। उस समय मेरी देव शास्त्र-गुरु पूजन प्रकाशित ही हुई थी, उसकी जयमाला में क्रमबद्धपर्याय की


पोषक कुछ पंक्तियाँ आती हैं। जो इसप्रकार है "जो होना है सो निश्चित है, केवलीज्ञानी ने गाया है। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बन कर पर का कर्त्ता अब तक, सत् न प्रभो सन्मान किया।


मैंने यह अपनी प्रथम प्रकाशित कृति स्वामीजी को समर्पित की थी। उसके समर्पण में लिखा था "उन पूज्य श्री कानजी स्वामी के कर कमलों में सादर समर्पित, उन्होंने कलिकाल में 'क्रमबद्ध पर्याय' का स्वरूप समझाकर


हम जैसे पामर प्राणियों पर अनन्त उपकार किया है।" जब मैंने उक्त कृति चाँदखेड़ी में स्वामीजी को समर्पित की; तब उन्होंने समर्पण पढ़कर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा


"तुम क्रमबद्धपर्याय जानते हो?" उसके उत्तर में जब मैंने उत्साहपूर्वक 'हाँ' कहा, तब वे कहने लगे "सोनगढ़ आना, वहाँ चर्चा करेंगे।"

● क्रमबद्ध पर्याय पुस्तक


चार अनुयोग से चर्चा, निश्चय व्यवहार, योग्यता, स्वकर्तृत्व-सहज कर्तृत्व- अकर्तृत्व, पांच समवाय, द्रव्य गुण पर्याय, स्यादवाद अनेकांत, त्रिलक्षणपरिणाम पद्धति, 6 शक्तियों की चर्चा, अकाल मरण, खानियांतत्वचर्चा, आइंस्टीन का उद्धरण, प्रश्नोत्तर, पूज्य गुरुदेव श्री का इंटरव्यू कुछ प्रश्न उत्तर ।


• क्रमबद्ध पर्याय पर श्रद्धा करने से हमारा मनोबल टूटता है तो मिथ्या मनोबल तो टूटना ही चाहिए परंतु अनंत पुरुषार्थ जागृत


होता है क्रमबद्ध पर्याय निर्णय करने वाले के अनुभव नहीं होते। .


• इसको समझने से गड़बड़ हो जाती है दिमाग चकराता है ऐसा नहीं है इसको मानने से साड़ी गड़बड़े दूर हो जाती हैं • रील सिनेमा, सीढ़ियों का उदाहरण, वजन तोलने वाली मशीन का उदाहरण (स्वयंचलित व्यवस्था सबसे अच्छी व्यवस्था है),


चोर का उदाहरण, सिनेमा हॉल का उदाहरण व्यवस्था के लिए, मोती की माला का उदाहरण


• जिनके माथे भाड़ में डूबे मझधार में। हम तो उतरे पार झोंक भार को भाड़ में ।।


● मन्तव्य -


• एक सच्चा जैन होने के लिए क्रम बद्ध पर्याय का मानना बहुत जरूरी है क्रमबद्ध पर्याय तो चारों अनुयोगों में है और क्रमबद्ध पर्याय लिखकर डॉ. साहब ने उसका बहुत मर्म खोला है। आचार्य श्री जयसागरजी महाराज


• अव्यवस्थित पढ़ना भी एक निश्चित व्यवस्थित क्रम के अनुसार ही होता है इस लाइन में मुझे बड़ा आकर्षित किया।


रंगमंच की सभी वस्तुएं हमको बिखरी बिखरी सी लगती हैं


पर वे तो पूर्ण व्यवस्थित हैं यह डायरेक्टर को दिखती है। मुनि श्री विजय सागर जी महाराज


• क्रमबद्ध पर्याय का विरोध आचार्य अमृत चंद्र का ही विरोध है और आचार्य अमृत चंद्र का विरोध सर्वदता का विरोध है और जो भी इसका विरोध करते हैं वे केवल इस आधार पर इसका विरोध करते हैं कि डॉक्टर भारिल सोनगढ़ पक्ष के हैं और सोनगढ़ पक्ष की ओर उठ विद्वानों की वक्र दृष्टि है अन्यथा वे भी विरोध नहीं कर सकते थे। ब्रह्मचारी जगन मोहन लाल जी शास्त्री


कटनी


दादा के विचार


• जिनागम के ग्रंथ में से कोई भी पन्ना खोलो, मैं उस में से तुम्हें क्रमबद्ध पर्याय निकाल कर बताऊंगा।


•एक ने कहीं, दूजे ने मानी।


नानक कहें दोनों है ज्ञानी ॥


अर्थ- वे तो बहुत महान है ही जिनने ये तथ्य हमें बताया साथ ही साथ वे भी कम भाग्यशाली नहीं हैं।


क्रमबद्धपर्याय का निर्णय अनन्त पुरुषार्थ का कार्य है। • वे पंक्तियों जो मुझे अच्छी लगी


कुछ करो नहीं, बस होने दो, जो हो रहा है, बस उसे होने दो। फेरफार का विकल्प तोड़ो, सहज ज्ञाता-दृष्टा बन जाओ। देखो नहीं देखना सहज होने दो, जानो नहीं, जानना सहज होने दो रमो भी नहीं, जमो भी नहीं, रमना-जमना भी सहज होने दो।


• "क्रमबद्ध पर्याय औरों के लिए एक सिद्धान्त हो सकती है, एकान्त हो सकती है, अनेकान्त हो सकती है, मजाक हो सकती है, राजनीति हो सकती है, पुरुषार्थप्रेरक या पुरुषार्थ नाशक हो सकती है; अधिक क्या कहें किसी को कालकूट जहर भी हो सकती है। किसी के लिए कुछ भी हो मेरे लिए वह जीवन है, अमृत है; क्योंकि मेरा वास्तविक जीवन, अमृतमय जीवन, आध्यात्मिक जीवन - इसके ज्ञान, इसकी पकड़ और इसकी आस्था से ही आरम्भ हुआ है। "

• दादा की जो अभी सहजता और तत्व चिंतन नाम की पुस्तक आई है वह क्रमबद्ध पर्याय की ठोस नींव पर ही खड़ी हुई हैं


• लेखक आगे लिखता है "क्रमबद्ध पर्याय की समझ मेरे जीवन में मात्र मोड़ देनेवाली संजीवनी है। • क्रमबद्ध पर्याय की सहज स्वीकृति में जीत ही जीत है, हार है ही नहीं।       - क्रमबद्ध पर्याय, पृष्ठ- १३


• यदि क्रमबद्धपर्याय की बात ध्यान में न आती तो न जाने क्या होता? होता क्या? सब कुछ ऐसे ही चलता रहता और बहुमूल्य मानवभव यों ही चला जाता। पर जाता कैसे, जबकि हमारी पर्याय के क्रम में क्रमबद्धपर्याय की बात समझ में आने का काल जो पक गया था। इसके बाद तो इसीकारण अनेक सामाजिक उपद्रवों का भी सामना करना पड़ा, शारीरिक व्याधियाँ भी कम नहीं थीं, पर क्रमबद्ध की श्रद्धा के बल पर आत्मबल कभी नहीं टूटा। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा एक ऐसी संजीवनी है, जो हर स्थिति में धैर्य को कायम रखती है, शान्ति प्रदान करती है, कर्तृत्व के अहंकार को तोड़ती है, ज्ञाता दृष्टा बने रहने की पावन प्रेरणा देती है अधिक क्या? यो कहिए न कि जीवन को सफल और सार्थक बना देती है।


• अबतक हम यही समझते थे मति के अनुसार गति होती। पर अब तो ऐसा लगता है गति के अनुसार मति होती।


• जब भी कोई प्रतिकूल परिस्थिति बनती थी उसमें भी अत्यधिक विचलित नहीं होते थे उसके पीछे उनका क्रमबद्ध पर्याय सिद्धांत पर अडिग विश्वास ही था


अपने शास्त्रियों से कहते हैं कि क्रमबद्ध पर्याय के विरोध में भी एकात लेख लिखो। इसकी चर्चा होनी चाहिए। 

● अंत में -


लहरें उठे सहज उठने दो तरल तरंगित रहने दो।


जितना उछले यह ज्ञानोदधि उतना उसे उछलने दो।।६४।।


अरे उछलकर कहाँ जायेगा अपनी सीमा के बाहर अपनी सीमा में सीमित वह सचमुच ही सीमन्धर है।। ६५ ।।


(ज्ञान की प्रत्येक पर्याय तो निश्चित है ही है साथ ही साथ ज्ञान का ज्ञेय भी नक्की है)


• श्रद्धा के लेवल पर तुमको जब महा सत्य स्वीकृत होगा। 

तुमको इस लौकिक जीवन में हलकेपन का अनुभव होगा।। 

चिंता की रेखाओं के बल ढीले होंगे फीके होंगे। 

चिन्ता बदलेगी चिन्तन में अर रोम-रोम पुलकित होंगे ॥ ९७ ।


●आनन्द महोदधि उमडेगा श्रद्धा के बादल गरजेंगे।

अनुभव की बिजली चमकेगी रिम-झिम रिम-झिम धन बरसेंगे।

समकित का सावन आवेगा अन्तरमन आनन्दित होगा। 

शिवमारग की पगडण्डी पर धीरे-धीरे चलना होगा।। ९८।।

सिद्धचक्र-विधान

 सिद्धचक्र-विधान (कविवर संतलालीय) का कलापक्षीय सौंदर्य

                 णमो सिद्धाणं
            ओम् नमः सिद्धेभ्यः
कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पाने वाले विद्वान कवि थे कविवर संतलाल जी
लगभग 30 उपलब्ध सिद्ध चक्र विधान है लेकिन वह विधान अपने आप को तभी जीवित रख पाता है कि- उसका कलापक्ष कितना उत्कृष्ट है।
इसमें भावपूर्णता के साथ-साथ कवि की काव्यकला भी अपने प्रौढ़रूप में सामने आयी है। ।   ।
आदिपुराण 👇
कितने हो कवि ऐसी कविता करते हैं जो शब्दोसे तो सुन्दर होती है परन्तु अर्थसे शून्य होती है। उनकी यह कविता लाखकी बनी हुई कंठीके समान उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त नहीं होती।॥६२॥ कितने ही कवि सुन्दर अर्थको पाकर भी उसके योग्य सुन्दर पदयोजनाके बिना सज्जन पुरुषोंको आनन्दित करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते जैसे कि भाग्यसे प्राप्त हुई कृपण मनुष्यकी लक्ष्मी योग्य पद-स्थान योजनाके विना सत्पुरुषोको आनन्दित नहीं कर पाती ।।७० ।।
जिस काव्यमें न तो रीतिकी रमणीयता है, न पदोंका लालित्य है और न रसका ही प्रवाह है उसे काव्य नहीं कहना चाहिए वह तो केवल कानोंको दुःख देनेवाली ग्रामीण भाषा ही है ॥

गुण 👉 10 प्रसाददि गुण (माधुर्य ओज प्रसाद )
भाषा 👉कवि की भाषा भावानुगामिनी, सरल और माधुर्यगुणयुक्त है।यह ब्रजभाषा में लिखा गया है
           धन्य ब्रजभाषा तोसी दूसरी न भाषा कोइ
          तैनें बानी के विधाता कू बोलिबौ सिखायौ है।
    
             नव सर्ग गते माघे नव शब्दो न विद्यते।
   पदलालित्य 👇
  शरनं चरनं वरनं करनं, धरनं चरनं मरनं हरनं ।
तरनं भव-वारिधि तारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो।।७।।

रस 👉
        विधि ते कवि सब विधि बड़े, यामैं संशय नाहिं।  
         षटरस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता माहि ।।
                       वाक्यं रसात्मकं काव्यं
        अलौकिक श्रृंगार (आत्म वैभव मुक्ति रूपी स्त्री)
विधान में सर्वत्र भक्तिरस व्याप्त होकर मानों सिद्ध भगवन्तों से साक्षात्कार ही कर रहा है।
   वीर रस(पहली पूजन की जयमाला) 👇
लखि मोहशत्रु परचंड जोर, तिस हनन शुक्ल दल ध्यान जोर आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी आरम्भ थाय।। ६।।

हास्य रस
जीवन सतावत, नहि अघावत क्षुधा डाइन सी बनी । सो तुम हनी, तुम ढिग न आवत, जान यह विधि हम ठनी।।

छंद 👉इसमें 47 प्रकार के छन्दों के प्रयोग से ज्ञात होता है कि कवि छन्दशास्त्र के विशेष ज्ञाता थे ।
  47 छंद शंखनारी सवैया इकत्तीसा मंदाक्रांता मालिनी वसंततिलका इन्द्रव्रजा हरिगीतिका मोदी मराठा लावनी कामनीमोहन चौबोला छंद लक्ष्मी धरा
विशेषता - जहाँ जहाँ प्रकरण बदल रहा है वहाँ वहां छंद बदलता है

अलंकार
उपमा और रूपक अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग ने काव्यगत सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया है
चित्रांकार
    ऊरध अधो सु रेफ सबिंदु हंकार विराजे ।
  अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ।।
वर्ग्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिधर ।
अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ।।
पुनि अंत ह्रीं बेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरि नाग को ।
ह्वै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ।।

अभिव्यंजना
  नय विभाग बिन वस्तु प्रमाणा, दया भाव बिन निज कल्याणा ।
पंगु सुमेरु चूलिका परसै, गुंग गान आरम्भे स्वर सै।। ४।।
गोखुर में नहिं सिधु समावे, वायस लोक अन्त नहीं पावै । तातें केवल भक्ति भाव तुम, पावन करो अपावन उर हम । ६।।
मौलिकता
1. ज्योतिष समुद्रिक शास्त्र और वास्तु शास्त्र का ज्ञान
     पूरब दिशा 👉 अकारादि स्वर
    आग्नेय दिशा👉 कवर्ग
     दक्षिण दिशा 👉चवर्ग
    नैॠत्य दिशा👉टवर्ग
    पश्चिम दिशा👉तवर्ग
     वायव दिशा👉पवर्ग
    उत्तर दिशा 👉यवर्ग
     ईशान दिशा👉शेष वर्ण (श,ष,स,ह)

2. चन्दन तुम बंदन हेत, उत्तम मान्य गिना ।
नातर सब काष्ठ समेत, ईंधन ही थपना।॥

3. जेते कछु पुद्गल परमाणु शब्दरूप,
भये हैं, अतीत काल आगे होनहार हैं ।
तिनको अनंत गुण करत अनंतबार,
ऐसे महाराशि रूप धरैं विसतार हैं।
सब ही एकत्र होय  सिद्ध परमातमके
मानो गुण गण उच्चरण अर्थ धार है
तौं भी इक समयके अनंत भाग आनंद को
कहत न कहै हम कौन परकार हैं।। १३०।।

कविता लिखना खेल नहीं है पूछो इन फनकारो से
ये सब लोहा काट रहें हैं कागज की तलवारो से।।

संतलाल जी का सिद्ध चक्र विधान अन्य मत के कवियों के सामने रखो तो वो 19वां नहीं  21वां ही सिद्ध होगा

जैन धर्म और आधुनिक विज्ञान

 १ जैन धर्म और आधुनिक विज्ञान


२ ऊपर की घटना पर जब मैं विचार करता हूं

३ (Binonivel coeficients) का निर्देश पास्कल्स से लगभग

४ केवल गणित के ही क्षेत्र में नहीं

५ इन सब बातों के बावजूद हमें कबूल करना होगा

६ एक जैन विदुषी से मैं जब तीर्थंकरों के

७ सुविज्ञ युवकों की सबसे ज्यादा

८ ऊपर जो कुछ लिखा है

जैन धर्म और आधुनिक विज्ञान

—रत्नकुमार शिवलाल शाह- पौडमार्ग , पुणे

सारांश

धर्म और विज्ञान परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं।प्रकृति के रहस्यों को जानने एवं ज्ञान के विकास में दोनों की महती भूमिका है। जैनाचार्यों ने गणित, भौतिकी, जैविकी आदि अनेक क्षेत्रों में में अनेक मौलिक प्रतिस्थापनायें की है जो विज्ञानियों को अनेक सदियों बाद समझ में आई। वर्तमान में विज्ञान द्वारा उद्घाटित अनेक तथ्य, विशेषत: भूगोल एवं खगोल के सम्बन्धों में जिनागम प्रणीत संकल्पनाओं से मेल नहीं खाती हैं। इस सन्दर्भ में सुशिक्षित युवा पीढ़ी जिनागम की सम्बद्ध मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। उनका यह कृत्य क्या सम्यग्दर्शन के विपरीत है? क्या वर्तमान में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन साहित्य सर्वज्ञ प्रणीत है? क्या उनमें विरोधाभास नहीं है? ऐसी स्थिति में आधुनिक संसाधनों द्वारा अविष्कृत नवीन तथ्यों को स्वीकार करने पर सम्यग्दर्शन बाधित नहीं होना चाहिए (?) एवं ऐसा करने से उच्चशिक्षित युवा पीढ़ी की धर्म के प्रति आस्था बढ़ेगी।

मेरे सेवा काल में भारत दौरे पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ । जहाँ-जहाँ में जाता हूँ, आपने सहधर्मी श्रावकों से मिलने का प्रयास करता हूँ। सब जगह मेरे जैसे वृद्ध पीढ़ी के प्रौढ़ व्यक्तियों की एक शिकायत सामने आयी के युवा पीढ़ी में धर्म के प्रति प्रेम और निष्ठा कम हो रही है, जब-जब युवाओं से मिलता था तो इस धारणा के बारे उनका दृष्टिकोण जानने का प्रयास करता।

ऐसे ही एक बार अलीगढ़ के एक जैन युवक से मेरी बात हुई। उन्होंने कहा कि वे एक वैज्ञानिक हैं और बहुत ही र्धािमक परिवार से हैं अत: कृपया मेरी जिज्ञासा शान्त करें। हमारे सभी पंडित, विद्ध ञ्जन, आचार्य, मुनि आदि जब विज्ञान के सभी संसाधनों का उपयोग करते हैं (जैसे-मोबाइल, टीवी, रेडियो, लेपटॉप, फोन, यातायात के साधन आदि), तो भी विज्ञान के इन चमत्कारों को स्वीकार नहीं करते। उन सभी का कहना है कि जिस चंद्रमा की ओर अभी-अभी का भारत का यान गया, या पहले दूसरे देशों के यान गये, या जिस पर नील आर्मस्ट्रांग ने १९७४ में पदार्पण किया, वह हमारे शास्त्रों में वर्णित चंद्रमा नहीं। हमारे आगमों का चंद्रमा तो पृथ्वी से (जंबूद्वीप से) ८८० योजन (५६३२००० कि.मी.) उंचाई पर, मेरूदंड से ६११५ योजन (३९१३६००० कि.मी.) दूरी से मेरू की प्रदक्षिणा करता है। यह चंद्रदेव का विमान अर्धकविठ के आकार का है, जिसका व्यास ५६/६१ योजन (५८७५ कि.मी) हैं। हमारे आगमों का सूर्य तो आकार में चंद्र से छोटा (व्यास ४८/६१ यो.५०३६ कि.मी.) और चंद्र की तुलना में पृथ्वी से नजदीक (ऊँचाई ८०० यो. ५१२०००० कि.मी.) और हमारे आगम के अनुसार तो मेरु की प्रदक्षिणा दो चंद्र और दो सूर्य करते है। इस युवक ने आगे बताया कि जब उसने एक पंडितजी सें प्रतिवाद करने की कोशिश की कि हमारे पास आकाश से खींचे पृथ्वी के छायाचित्र है जिससे यह साबित होता है कि पृथ्वी आगम में वर्णित थाली के आकार की है उसका वयास आगम के जंबूद्वीप से ५०००० गुना कम है, चंद्र पृथ्वी के सबसे नजदीक है। और सूरज उससे लगभग ४००० गुना दूरी पर है और वह पृथ्वी तथा चंद्र से कई लाख गुना आकार में बड़ा है, तो वे बड़े क्रोधित हुए और कहने लगे कि तुम मिथ्यात्वी हो, आगम प्रणीत कथन का विरोध करते हो और निश्चित ही नरकगामी हो । उस वक्त से, उसने किसी से भी इन बातों पर चर्चा करना बंद किया।

ऊपर की घटना पर जब मैं विचार करता हूं

तो तुझे लगता है कि इसी कारण से युवा जनों की धर्म पर श्रद्धा कम होती जा रही है। सम्यग्दर्शन का मतलब केवल शास्त्रों में जो लिखा है उसे निरपवाद रुप से स्वीकार करे इस हद तब सीमित नहीं करना चाहिए। सम्यग्दर्शन का सही अर्थ तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिंतवन करना, कषायों को मंद, मंदतर, मदंतम करते जाना ऐसा लेना चाहिए। उदाहरण के तौर पर इस परिधि/ व्यास इस अनुपात का मान देखना। सभी आगम ग्रंथो में तथा तिलोयपण्णत्ति, गोम्मटसार आदि ग्रंथों में इसे १० ३.१६ बताया है, जबकि उसका अधिक सही मान २२/७ ३.१४ है या इससे भी सही मान वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में ३५५/११३ ३.१४१५९...दिया है। इसके ऊपर आगमों में दिये मान पर अड़े रहना यथार्थ नहीं होगा। तो समय आ गया है कि हम धर्म और विज्ञान के बीच की लक्ष्मण-रेखा तय करे। धर्म का विषय तत्वज्ञान, आचरण, आत्मोन्नति इत्यादि होना तो नि:सन्देह ही हैं, लेकिन उसका क्षेत्र भौतिकी, रसायन वैद्यक, जीवविज्ञान, भूगोल इत्यादि नहीं यह स्वीकार करे तो ही हम युवा पीढ़ी को धर्म की तरफ सक्रियत: अभिमुख कर सवेंगे।

इसका मतलब यह नहीं के इन भौतिकादि क्षेत्रों में जैनाचार्यों के योगदान का मूल्यांकन कम करना। १५०० से २५०० वर्ष पूर्व जब निरीक्षण के संसाधन आज की तुलना में नहीं के समान थे, हमारे आचार्यों ने विश्व के सभी पहलुओं पर गहरा चिंतन किया। लगभग २५०० वर्ष पूर्व का मान १० निश्चित करना यह एक बड़ी उपलब्धि माननी पड़ेगी।उत्तरवर्ती आचार्यो द्वारा १० ३.१६२२७६६०१७५...इस तरह १० दशमलव स्थान तक सही किमत निकालना और भी बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं। (देखिए अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र २३४) संख्याएं लिखने की दशमान-पद्वति और उसका गणितीय प्रक्रियात्मक विकास तथा संख्या लेखन में शून्य का स्थानीय-मूल्य जैसा उपयोग यह भी जैनाचार्य की ही देन होनी चाहिए इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं। विकल्प (permvtions) और भंग (Combintations), का गहरा विचार भगवतीसूत्र जैसे अति-प्रचीन आगम में तथा परवर्ती गंरथों में बहुत ही विस्तार से हुआ है। इतना ही नहीं बल्कि अत्याधुनिक गणित के अतिजटिल सिद्धांत (Partition theory) पर भी भगवती सूत्र में विचार हुआ है इससे अद्भुत बात और क्या हो सकती है? वीरसेन स्मावी (ईसा की ९वीं सदी) द्वारा वृत्तीय शंवू के आकार वाले लोक का घनफल निकालने की पद्वति हमें युडोक्सस और आर्विमिदीज के ऊद्वार पद्धति (Method Exhausition) की याद दिलाती हे पारकल्स (Pascats) त्रिकोण नाम से प्रसिद्ध द्विपद गुणांक |

(Binonivel coeficients) का निर्देश पास्कल्स से लगभग

५०० साल पूर्व जैनाचार्यों ने मेरू प्रस्तर के तौर पर किया था। वीरसेन स्वामी द्वारा वर्गणा, स्पर्धक, अविभाग प्रतिच्छेद, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान स्थितिबंधाध्यवसायस्थान, योगस्थान आदि के विवरण में हमें कलन सिद्धान्त (Calculus) की झलक मिलती है। कांडकप्ररुपणा तथा वृद्धि-हानिप्ररुपणा में नप केवल उन्होंने द्विपद गुणांको का निर्धारण किया है बल्कि स् , स् और स् का सन्निकट निर्धारण करने में सफल हुए है। कर्म सिद्धान्त के विकास करते जैनचार्यों ने विशालकाय संख्याओें के परिमाण के लिए उपमामान पद्धति का अवलंब किया और अनंत की परिकल्पना के विकास का एक जबरदस्त प्रयास और साहस किया। अनुयोगद्वार सूत्र मे तथा सर्वनंदि (ईसा की ५वीं सदी), जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (ईसा की ६ठी सदी),वीरसेन (ईसा की ९ वीं सदी) नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, केश्ववर्णी, मलयगिरि, अभयदेव (ईसा की ११वीं सदी) आदि द्वारा अनंत की संकल्पना का जो विकास हुआ जिसका बहुत कुछ साम्य १९वीं सदी के प्रसिद्ध गणितज्ञ केन्टर के अपिमेय संख्याओं (Transfinite numbers) के सिद्धांत से है। बीज गणित की शुरुआत का प्रथम प्रयास शायद जैनाचार्यों द्वारा ही हुआ। वक्षाली हस्तलिपि (ईसा की ४थी सदी) मे और तियोपण्णत्ती में बीजीय संज्ञाओं का प्रचुरता से उपयोग हुआ है। केशववर्णी की गोम्मटसार की टीका में वह चरमसीमा तक पहुँच गया है।वीरसेन और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा लॉगरिथ्म (संख्या २ पर आधारित) के नियमों का निर्धारण इतना ही प्रगत था जितना आधुनिक गणित का।

केवल गणित के ही क्षेत्र में नहीं

लेकिन विज्ञान, साहित्य, तर्व तथा न्याय के क्षेत्र में भी जैन आचार्यों ने बड़ा योगदान दिया है। सर्वार्थसिद्धकार पूज्यपाद न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के एक श्रेष्ठ विभूति थे, बल्कि एक उच्च कोटी के रसायन शास्त्रज्ञ, वैद्य, तार्विक तथा कवि थे। भट्टाकलंकदेव एक प्रकांड पंडित के बावजूद एक भौतिक विज्ञानी थे जिनका कण-विज्ञान में योगदान बड़ा महत्वपूर्ण रहा। वनस्पति सजीव है इस बात इजाद होने में दुनिया को २०वीं सदी तक रुकना पड़ा, जब प्रो.जगदीशचंद्र बोस ने इसे प्रमाण सिद्ध किया। लेकिन २५०० साल पूर्व से, शायद उससे भी कई सदियों पूर्व के, जैन मनीषियो ने उच्च रवसे बताया था कि वनस्पति एक प्रत्येक शरीर होते हुए भी अनंतानंत जीवों को आधार देने वाले समूह-पिंड है। इतना ही नहीं परन्तु पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के समूह-पिंड भी जीव-युक्त होते है यह भी बताया। (आज वैज्ञानिक मानते है कि कुछ खास जाति के विषाणु (becteria) २५० सेल्सियस तापमान में भी जीवित रह सकते है)। सजीव सृष्टि के कुल, जाति और उनके ८४ लक्ष योनियों के बारे में तथा सूक्ष्माति सूक्ष्म निगोद जीवों का सविस्तृत विवरण जो जैन शास्त्रों में आया है उस पर बहुत अनुसंधान होने की जरूरत है। आधुनिक विज्ञान में पदार्थों के अंतरंग में जाने का प्रयास अणु से शुरू होकर मूलकण (Fundamental particles) द्वारा तंतु तक आ पहुँचा है। लेकिन जैनाचार्यों का परमाणु तो इतना सूक्ष्म है कि उसके सामने आज का सूक्ष्म तंत्र तंतु भी आधुनिक विज्ञान के अणु की तुलना में समुचा विश्व जितना बड़ा है उससे असंख्यात गुणा बड़ा है। शास्त्रों में पुदगल वर्णणाओं का जो वर्णन है वह आधुनिक गणितीय सूक्ष्मानंत (infinitesinek) से मिलता-जुलता है।

इन सब बातों के बावजूद हमें कबूल करना होगा

कि शास्त्रों में वर्णित सभी बाते सौ फीसदी सच हे ऐसा आग्रह करना बराबर नहीं होगा। जैनागम के एक आधुनिक युवा पंडित से मेरी हाल ही में चर्चा हुई। उन्होंने एक नया विचार पेश किया।उनके अनुसार धर्म का विषय अध्यात्म, आत्मा, चारित्र, कर्म, बंध, तप, निर्जरा, मोक्ष आदि से है। जबकि विज्ञान का विषय बाहरी जगत, पुदगल, पंचास्तिकाय, विश्व का उद्गम और विनाश आदि है। एक बार अध्यात्मिक क्षेत्र में जैनाचार्यों का अधिकार मान ले, परन्तु विज्ञान के क्षेत्र में उनकी जो धारणायें है वे केवल निरीक्षण और चिंतन पर आधारित थी और उसे प्रयोग का आधार नहीं था इसलिये उसे परम सत्य मानना जरूरी नहीं है। भौतिक ज्ञान की कक्षायें दिन प्रति दिन बढ़ रही है और निरीक्षण, सिद्धान्त और प्रयोग पर आधारित होने के कारण उसे ज्यादा प्रामाणिक मानना पड़ेगा। जब मैंने इन पंडितजी को बताया कि इससे सर्वज्ञ प्रणीत वचन से विरोध आने की संभावना है, तो उन्होंने बताया कि आज उपलब्ध कोई भी ग्रंथ या रचना सीधे सर्वज्ञ द्वारा रचित मानना बराबर नहीं होगा। ये सभी ग्रंथ परवर्ती आचार्यों की कृतियां है। आगम-तुल्य कषायपाहुड तथा षट्खंडागम ये रचनायें भी भगवान महावीर के ७०० से भी ज्यादा वर्षों के बाद की है। श् वेतांबर पंथ के आगम भी ईसा की ५वीं सदी में संपादित ग्रंथ है। मुझे भी पंडितजी का यह युक्तिवाद अधिक तर्वसंगत लगता है।

इससे मनोरंजक किस्सा हे एक जयपुरवादी पंडितजी का। आप मान्यवर आय. आय. टी. के स्नातक, विदेश में सेवाकाल बिताकर भारत लौटने पर ३१ साल की उम्र में जैन धर्म के प्रचार में अपने को झोंक दिया है। आपसे जब जैन भूगोल और ज्यातिष के बारे में बात करने का अवसर प्राप्त हुआ तो आपने एक पूर्णत: नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। आपके अनुसार जैन भूगोल में दिये हुए भारतवर्ष, अन्य क्षेत्र, वर्षधर,द्धीप, सागर आदि के नाप और आज के उनके परिमाण में जमीन और आसमान का अंतर है उसका कारण इस अवसर्पिणी काल में जिस तरह मनुष्य, तिर्यंच आदि की अवगाहना कम हो रही है उसी तरह द्वीप, समुद्रादि के परिमाण भी संकोच पा रहे है। तो मैने पूछा फिर मेरू पर्वत कहां चला गया? आगमों में तथा शास्त्रों में बताया है कि यह लोक अनादि निधन तथा अंनतकाल तक एक ही स्थिति में अवस्थित है और उसके परिणामों में कोई भी वदलाव नहीं आ सकता।और क्या यह द्वीप, समुद्रादि के संकोच विस्तार की बात क्या सर्वज्ञ के वचन के विरोधी नहीं है? उन्होंने झट से प्रतिवाद किया कि कौन सा आगम? क्या है सर्वज्ञ प्रणीत? अभी जो ग्रंथ उपलब्ध है वे तो भ. महावीर के परवर्ती आचार्यों द्वारा लिखित है। मेरे छोटे भाई जो साथ थे उन्होंने पूछा कि पंडितजी फिर आप प्रवचन किस आधार से करते हो? आप ही कहते हो कि सर्वज्ञ वचन अब अनुपलब्ध है। युवा पंडित के पास इसका कोई जबाब नहीं था।

लेकिन इससे एक बड़ी समस्या पैदा होती है जिसका प्रमाणिक जवाब हमारे समस्त पंडित वर्ग और मुनिगण को देना पडेगा। उपरोक्त संवाद से ये प्रश्न उपस्थित होते है: सर्वज्ञ प्रणीत किसे कहा जाय? क्या विद्यमान आगम तथा आचार्य प्रणीत ग्रंथों में जो लिखा है वह सभी का सर्वज्ञ वचनरूप मान सकते है? अगर ऐसा माना भी जाय तो विविध आचार्यों में कई बातों में इतनी मतभिन्नता क्यों? क्या भूवेंद्रित व्यवस्था (मेरु और जंबूद्वीप को केन्द्र स्थान में और समस्त ज्योतिष लोक का उसके इर्दगिर्द परिभ्रमण) में विश्वास न करना सम्यग्दर्शन की विराधना होगी और मिथ्यात्व का द्योतक होगा ?सम्यग्दर्शन और मिथ्यात्व की सही व्याख्या क्या होनी चाहिये? मेरा सभी विद्धानों से अनुरोध हे कि वे इन प्रश्नों का विश्वासपूर्ण समाधान करे।

एक जैन विदुषी से मैं जब तीर्थंकरों के

अतिशश्यों के बारे में बात कर रहा था तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उपस्थित किया। बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के बारे में सर्वज्ञ, तीर्थंकर आदि प्रशंसोदगार पाये जाते है। इस हालत में जब भगवान का समवशरण होता था जिसमें स्वर्ग से इंद्रादि देव, मनुष्य, हिंस्त्र तथा दीन पशु आते थे, भगवान अधर गमन करते थे, वे आहार और पान के बिना १३ साल रहे, तो इन गरिमापूर्ण अतिशयों का बौद्ध तथा अन्य र्धािमक साहित्य में थोड़ा तो चिक्र होना था। एक मनीषी ने इसका स्पष्टीकरण देते बताया है कि कुछ बौद्ध गंरथों में भ. महावीर को इंद्रजाल जादू करने में निष्णात कहा है वह इन विभूतियों के कारण ही । परन्तु, यह खुलासा तर्व संगत नहीं लगता। इस विदुषी ने आगे बताया सुविज्ञ युवाजन प्राय: निम्न प्रश्न धर्म के बारे में पूछते है। हमें (पूर्व जन्म) का जातिस्मरण क्यों नहीं होता ? मोक्षगमन वर्तमान में क्यो शक्य नहीं है? हम विदेह क्षेत्र क्यों नहीं जा सकते ? हमारी विपदाओं में देव हमारी सहायतार्थ क्यों नहीं आते? देव मनुष्यों का हरण कर उन्हें मानुषोत्तर पर्वत के पार ले जाने का एक भी उदाहरण क्यों दिखाई नहीं देता ? हमें मेरु पर्वत दिखाई क्यो नहीं देता ? इन सभी का हमारे धर्मविदों के पास एक ही उत्तर है, ये सभी बातें इस पंचम दुषमा काल में संभव नहीं है। लेकिन आधुनिक युवाजन इस पर विश्वास करने को कतई तैयार नहीं। वे तो कहते हैं चूंकि आप ये बाते सिद्ध नहीं कर सकते अत: आपका यह केवल युक्तिवाद मात्र है। क्या हम इन बातों को धर्म से अलग नहीं कर सवेंगे ? क्या हम धर्म को तत्त्वज्ञान, नीति और आचरण तक ही क्यों ना सीमित रक्खें ? एक प्रतिभाशाली और उदारमनस्क मुनि महाराज से जब इस बारे में मेरी बात हुई तो उन्होंने एक नया ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। आपने कहा कि हमारे आचार्य जो वीतरागी है, जिन्हें न किसी लाभ की अपेक्षा है न किसी का डर है, जो सत्य महाव्रत का पालन करते है, वे भला क्यों स्वर्ग, नरक, नंदीश्वरद्वीप, स्वयंभूरपण समुद्र, तमस्काय, पाताल कुंभ, भवनवासी-व्यतंर-ज्योतिष्क देव, तिमिस्र गुंफा इत्यादि बाते, जिन्हें आप मनगढ़त समझते हो करेंगे। इस प्रतिसवाल का हमारे पास भी कोई जवाब नहीं था। और एक मुनिवर्य के मतानुसार बहुत से प्रतिभाशाली तथा दिग्गज आचार्य ब्राम्हण कुल के थे तो उन्होंने जैन दर्शन को उत्तुंग स्तर पर ले जाते हुए पौराणिक अतिरंजित तथा अतिश्योक्तापूर्ण वर्णन की प्रथा भी जैन दर्शन तथा साहित्य में लाई। यह आरोप भी आ.समंतभद्र, पूज्यपाद, अकलंक आदि का उदाहरण देखते उचित प्रतीत नहीं होता।

सुविज्ञ युवकों की सबसे ज्यादा

आपत्ति सर्वज्ञता के संकल्पना के बारे में है। सर्वज्ञता की व्याख्या विश्व के समस्त पदार्थों के अतीत, वर्तमान और अनागत सभी अनंतानंत पर्यायों को ‘‘युगपत’’ जानना ऐसी की गई हैं। इसके लिये दर्पण की उपमा दी जाती है। जिस तरह दर्पण में समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित होते है उसी तरह केवली या सिद्ध के ज्ञान में अनंतानंत पर्यायें झलकती हैं। दर्पण में तो प्रतिक्षण की प्रतिमायें बिबित होती है। यह कहना कि अनंतानंत अतीत, अनंतानंत अनागत काल के अनंतानंत समयों के, अनंतानंत जीवों और अनंतानंत पुदगलों के अनंतानंत पर्यायें एक साथ झलकती है बुद्धिगम्य नहीं लगता। एक जैन मूर्धन्य पंडिता से मेरी बात हुई। उनका कहना है कि ’’युगपत’’ सिद्धांत बड़ा खतरनाक साबित हो सकता है। जब कि सिद्ध या केवली के ज्ञान में भविष्य की भी सभी द्यटनाये सतत् झलकती रहती है, वह घटनायें होने ही वाली है,भले आप कितना ही तप करे, पुण्योपार्जन करे अथवा पुरुषार्थ करे। इस युगपत सिद्धान्त से धर्माचरण में शिथिलता आने की संभावना है। फिर खूनी को सजा होना भी अप्रस्तुत होगा। इससे जैन धर्म नियतिवादी कहलाया जायेगा। भ.महावीर द्वारा उनके समकालीन कितने ही भ.पाश्र्व के अनुयायियों को और और परमतवादियों को अपने संघ में सम्मिलित आजीवक (यापनीय) संप्रदाय था। भ. महावीर के समय उनके प्रमुख आ.गोशालक थे। भ. महावीर का अनुयायित्व स्वीकार कर वे संघ में कुछ १४ साल तक रहे। लेकिन जब गणधर पद इंद्रभूति गौतम को दिया गया तो वे रुष्ट होकर संघ से बाहर होकर अपने आजीवक मत का प्रचार करने लगे, ऐसा कुछ विद्धानों का मत है। गोशालक नियतिवाद के बड़े उद्गाता थे। लगभग १००० वर्ष तक आजीवक संघ अलग रूप से अस्तित्व में होने के पुरातत्त्वीय प्रमाण मौजूद है। इसके बाद कुछ ही शताब्दियों में यह संघ दिगम्बर संघ में पूरी तरह से विलीन हुआ। पंडिताजी की ऐसी धारणा है कि आज सर्वज्ञता के आधार पर कुछ विद्धान नियतिवाद का जो प्रचार कर रहे है वह शायद आजीवक तत्त्वज्ञान की धरोहर है।

मेरे एक हिंदु तत्त्वचिंतक मित्र है जिन्हें जैन धर्म के प्रति बड़ा प्रेम है। उन्होनें जैन तत्वज्ञान का काफी अध्ययन किया है। वे हमारे मोक्ष, निर्वाण और सिद्धत्व की कल्पना पर निम्न आपत्ति पेश करते है। सिद्ध भगवान संसार के चक्र से मुक्त होकर अंनतानंत अनागत कालतक सिद्ध शिलापर अतीत काल के अनंतानंत सिद्धों के साथ अंनतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंतसुखयुक्त विराजमान होते हैं। लेकिन उन सिद्धों में उस ज्ञान, दर्शनादि के ‘‘उपयोग’’ का कोई प्रसंग ही नहीं आत। ‘जीवों उवोगमओ’ इस व्याख्या अनुसार जीव का लक्षण उपयोगमयता होने से और सिद्ध भगवान तो उपयोग-विरहीत होने से सिद्ध और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। मेरे इस मित्र का कहना है कि सिद्ध शिला पर अनंतानंत काल तक अटके रहने से वह ज्यादा से ज्यादा पुण्योपार्जन कर मनुष्य जन्म में उच्च गोत्र प्राप्त कर या स्वर्ग में उत्पन्न हो सुखमय जीवन व्यतीत करना पंसद करेगा। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ.राधाकृष्णन को शायद इसी कारण से जैन धर्म की निर्वाण की संकल्पना बड़ी भयावह है ऐसा वे अपनी History of India Priosophy किताब में लिखते है।

ऊपर जो कुछ लिखा हैऊपर जो कुछ लिखा है वह लेखक का निजी दृष्टिकोण है ऐसा नहीं समझना। ये बातें जैन समाज के विविध स्तरों में सभी उम्र के लोगों के साथ चर्चा करके सामने आयी। अगर हमें नये पीढ़ी को धर्मोन्मुख करना हो तो धर्म और विज्ञान का समन्वय करना आवश्यक होगा। विज्ञान का संबंध परोक्ष ज्ञान से है और धर्म का प्रत्यक्षज्ञान से और उनके समन्वय का कोई सवाल ही नहीं ऐसा कहकर भी नहीं चलेगा। धर्म - शास्त्रों में जो कुछ लिखा है वह संपूर्ण सत्य मानना ही सम्यदर्शन है ऐसा आग्रह करना उचित नहीं होगा। प्राचीन आचार्यों में कई बातों पर मतभिन्नता थी। षटखंडागम की धवला टीका में तथा कषायपाहुड की जयधवला टीका में वीरसेन स्वामी ने ऐसे मतभिन्नता के सैकड़ो उदाहरण दिये। आचार्यों ने अपने सूक्ष्म निरीक्षण, अपार मेघा और गहरे चिंतन से इहलौकिक तथा पारलौकिक बातों में मार्गदर्शन किया है। ज्ञान का क्षेत्र जैसा बढ़ते जा रहा हे कैसे दिन ब दिन नये विचार और सिद्धांत प्रकाश में आ रहे है। केवल शास्त्रों में नही लिखा कहकर उन्हें अस्वीकार करना और उसे मिथ्यात्व कहना अंतत: अंधश्रद्धा को बढ़ावा देना होगा। सम्यग्दर्शन की नयी व्याख्या करने का समय आ गया है। विज्ञान की नयी खोजों नये विचारों तथा नये सिद्धांतों को स्वीकार कर अध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धांतों को नया रूप देने की आवश्यकता है।

वैज्ञानिको की महान खोज : सर्वश्रेष्ठ आहार-शाकाहार'

 'शाक’ शब्द संस्कृत की ‘शक्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है योग्य होना, समर्थ होना, सहज करना । शक् धातु से शक्नोति इत्यादि शब्द बने हैं। शाक शब्द का अर्थ है-बल, पराक्रम, शक्ति एवं शक्त के मायने हैं -योग्य, लायक, ताकतवर। इस तरह शाकाहार का वाच्यार्थ हुआ ऐसा आहार जो मनुष्य की योग्यताओं का विकास करें और उसे बलशाली तथा पराक्रमी बनाये।


वेजीटेरियन शब्द लेटिन भाषा के ‘वेजीटस’ शब्द से जन्मा हैं, जिसका अर्थ है-स्वस्थ, समग्र, समर्थ, विश्वस्त, ठोस परिपक्व, जीवन, ताजा। प्रसीसी का ‘वेजीटेबिल’ शब्द का अर्थ है जीवन-संचारक, अंत जीवन से भरपूर।

महान् वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाईन विशुद्ध शाकाहारी थे वे कहा करते थे कि शाकाहार की हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

सन् १९४५ में रसायन शास्त्र विषयक नोबल पुरस्कार से सम्मानित डा.अर्तुरी वर्ततेन (हेलिंस्की, फिनलैंड में जवे रासायिनिक शोध संस्थान के निर्देशक) ने कहा है कि दुग्ध शाकाहारीयों का फल, साग-सब्जी, दाल, वसा, न्यूनित दूध आदि से तमाम आवश्यक पोषक तत्व सहज ही मिल सकते हैं।

अमेरिका फूड एंड न्यूट्रीशन बोर्ड की नेशनल रिसर्च कौंसिल ने साफ कहा है कि अधिकांश षोषण विज्ञानी इस तथ्य से सहमत हैं कि यदि शाकाहार को यथोचित संयोजन किया जाए तो वह स्वयं में सम्पूर्ण /पर्याप्त आहार है। दुनिया के प्राय: सभी मुल्कों में शुद्ध शाकाहारियों ने अपना स्वास्थ्य उत्तम प्रकार से बनाये रखा है।

एक वैज्ञानिक खोज ने यह सिद्ध कर दिया है कि ‘शाकाहार में मांस से पांच गुणा अधिक शक्ति है’-ओरियन्टल वॉच्मेन पूना पृ.३५।

संयुक्त राज्य अमेरिका में डेढ़ करोड़ शाकाहारी लोग १९९९ तक हो चुके थे। गेलप पोल अनुमान के अनुसार यू.के.में हर हफ्ते ३ हजार लोग शाकाहारी बन जाते हैं। जिनकी संख्या करोड़ो में पहुच चुकी है।

शाकाहारियो का अच्छा स्वास्थ्य उनके आहार का परिणाम है यह विचार बर्लिन वेजीटेरियन स्टडी की जांच पड़ताल का है। जर्मन स्वास्थ्य दफ्तर के सामाजिक औषध और महामारी विज्ञान संस्थान ने १९८५ में उपर्युक्त अध्ययन शुरू किया था। अध्ययन के अनुसार शाकाहारियों का संतुलित स्वास्थ्य उसके मांस मछली आदि न खाने और मोटे रेशे वाले तथ कम कोलेस्टेरोल वाले अन्न उत्पादनों के सेवन करने का परिणाम है।

वीगन (शुद्ध शाकाहारी) जीवन शैली को एक वाक्य में परिभाषित करते हुए व्रूएल्टी प्र गाइड टू लन्दन के संपादक स्लेक्स बुर्व ने कहा है कि ‘‘एक शाकाहारी न तो किसी जन्तु के किसी अन्तर्वर्ती भीतरी भाग को खाता है और न ही उसके बाहरी भाग को ओढ़ता-पहनता है।’’

सन् १८३५ का दैदीप्यमान भारत मैने भारत की चतुर्दिक यात्रा की है और मुझे इस देश में एक भी याचक अथवा चोर नहीं दिखा। मैंने इस देश में सांस्कृतिक संपदा से युक्त, उच्च नैतिक मूल्यों तथा असीम क्षमता वाले व्यक्तियों के दर्शन किए हैं। मेरी दृष्टि में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत जो कि इस देश का मेरूदंड रीढ़ है, उसको खंडित किए बिना हम देश पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। मैं प्रस्ताव करता हूँ कि इस देश की प्रचीन शिक्षण पद्धित उनकी संस्कृति को इस प्रकार परिवर्तित कर दें कि परिणाम स्वरूप भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ भी विदेशी एवं आंग्ल है वही श्रेष्ठ एवं महान हैं इस तरह वे अपना आत्म सम्मान, आत्म गौरव तथा उनकी अपनी मूल संस्कृति को खो देंगें और वे वहीं बन जाऐंगें जो कि हम चाहते हैं-पूर्ण रूप से हमारे नेतृत्व के अधीन एक देश। (लार्ड मैकाले द्वारा २ फरवरी १८३५ को हाउस ऑफ कॉमन्स ब्रिटिश संसद में दिए गए भाषण का अंश) उपरोक्त ऐतिहासिक दस्तावेज की प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा परमपूज्य जैन मुनि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को उपलब्ध कराई गई।

अग्रवाल मूल में जैन ही है* ?

 अग्रवाल उत्तर भारत की सम्पन्न व शिक्षित वैश्य जाति है इसने भारत देश के उत्थान में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है, इस जाति के अनुयायी आमतौर पर हिंदू व जैन दोनो धर्मो के पालक रहे है, अग्रवाल जाति का इतिहास राजा अग्रसेन से शुरु होता है, और उनका राज्य महाभारत काल में हरियाणा प्रदेश के हिसार-रोहतक क्षेत्र में विस्तृत था इस जाति की उत्पत्ति के संबंध में जितने भी कथानक है वह सभी यूँ तो काल्पनिक ही है, पर उनपर अगर शोध हो तो वह निश्चित ही अग्रवाल जाति को प्रारंभ से जैन धर्म से जोड़ेंगे। वस्तुतः अग्रवाल भारत की मूल जाति रही है जो विदेशी आर्यो के अत्याचारों से पीड़ित होकर वैश्य वर्ण में आ गई। इसका ही विवेचन हम यहाँ करेंगे

 
परवर्ती वैदिक साहित्य में राजा अग्रसेन की कथा का वर्णन आता है जिसके अनुसार वह महालक्ष्मी के उपासक थे और सूर्यवंशी थे उन्होने एक बार अश्वमेध यज्ञ भी किया था और उसमे बलि देने की बात आई तो उन्होने इससे मना कर दिया ब्राह्मण आर्य यज्ञ के नाम पर हिंसा का तांडव रचाते थे तीर्थंकर नेमिनाथ (महाभारत काल) के काल में उनका वर्चस्व उत्तरी भारत के कई राज्यों पर था।  कई राजा उनकी बात मानकर हिंसक यज्ञो-कर्मकांडो का समर्थन भी करने लगे थे पर अहिंसक राजा अग्रसेन ने इससे स्पष्ट मना कर दिया बलि नहीं देने के कारण ही उन्हें आर्य ब्राह्मणों ने क्षत्रिय वर्ण से बाहर कर दिया तब अग्रसेन राजा ने वैश्य वर्ण स्वीकार किया।
  एक और वैदिक कथानुसार राजा अग्रसेन जब अपने लिए नई राजधानी की खोज में निकले तब उन्हें वर्तमान अग्रोहा के पास (जो उस समय घनघोर जंगल था) एक जगह शेर व गाय एक ही घाट पर जल पीते दिखे राजा अग्रसेन ने सोचा जहाँ पवित्र मैत्री व अहिंसा हिंसक जानवरो में भी हो वहाँ अवश्य ही हमे राजधानी स्थापित करना चाहिए तीर्थंकर के समवशरण में भी शेर व गाय एक ही घाट पर पानी पीते है संभव है कि उस समय वहाँ से तीर्थंकर का समवशरण गुजरा हो जिसके फलस्वरुप गाय व सिंह एक जगह जलपान कर रहे थे।
  इससे यह तथ्य सटीक हो जाता है अग्रसेन राजा कुल परम्परा से शाकाहारी थे एवं वह बाकी राजाओ की तरह आर्य ब्राह्मणों के विचारो से मान्य नहीं थे। उनका अहिंसा में भरपूर विश्वास था। इस तथ्य से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि उन्होने अंत समय में दिगंबर जैन मुनि दीक्षा लेकर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था, चूँकि प्राचीनकाल में जीवन के अंत समय में दीक्षा लेने की परंपरा रही थी।
  अग्रसेन राजा के 18 पुत्रो के नाम पर 18 गोत्रो के नाम पडे इनमे से 3 गोत्र आज भी परवार जैनो में व अग्रवालो में समान है( गोयल,कांसल,बांसल) इससे भी इनकी जैन धर्म से साम्यता ज्ञात होती है। यह कथा इतिहास काल के पूर्व की है जिसके संबंध में प्राचीन ग्रन्थो का अभिप्राय अनुसार अध्ययन ही प्रमाण है।
  अग्रोहा के पुरातत्व की ओर दृष्टि करे तो वहाँ से एक सिक्का खुदाई में प्राप्त हुआ है जिसके एक और वृषभ का चिह्न व दूसरी ओर प्राकृत भाषा में अग्र गणराज्य का उल्लेख है(जो अग्रवाल जाति को सिंधू घाटी सभ्यता से जोडते है।) प्राकृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा रही है तीर्थंकरों ने अपने प्रवचन इसी भाषा में दिए। आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य लोहाचार्य (एक पट्टावली अनुसार आचार्य समन्तभद्र)  भद्दिलपुर(आज का विदिशा) से विहार करते हुए अग्रोहा के निकट पधारे उस समय यहाँ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार बहुत था यहाँ के शासक दिवाकर ने आचार्य की वंदना की व उनसे प्रतिबोध पाकर जैन धर्म के प्रति श्रद्धा और दृढ की। प्राचीन काल में जिस धर्म का पालक राजा होता था उसी धर्म को प्रजा भी मानती थी इसी कारण उस क्षेत्र में रहने वाले सभी जाति के निवासियो ने जैन धर्म का पालन करना शुरु कर दिया। बाद में यहाँ के सभी लोगो ने मिलकर अग्रवाल जाति बनाई उन्हें आचार्य ने काष्टासंघी नाम दिया तब से लेकर अब तक काष्टासंघ की पीठ पर बनने वाले सभी भट्टारक अग्रवाल कुलोत्पन्न ही होते थे। यह घटना दूसरी शताब्दी के आसपास की है। अब तक चंपापुर(बिहार),ग्वालियर,तिजारा(राजस्थान) आदि कई स्थानो से खुदाई में अग्रवाल,अग्रोतक आदि प्रशस्ति लिखी जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। सम्राट अकबर के काल में साहू टोडर अग्रवाल ने मथुरा में 500 से अधिक जैन स्तूप बनवाए थे, अग्रोहा में भी खुदाई में स्तूप निकले है जैन धर्म में तीर्थंकरो की निर्वाण स्थली,मुनियों की समाधि स्थली पर स्तूप बनाने की परंपरा प्राचीनतम रही है अग्रवाल समाज में इस परंपरा का पालन मुगलकाल तक जारी रहा।

*अग्रवाल वैष्णव धर्मी कैसे बने*
  मुगलकाल मे जब जैन धर्मियो पर बहुत संकट आया ऐसे समय में उत्तर भारत में दिगंबर मुनियों का विहार खत्म हो गया तब पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के संत वल्लभाचार्य ने अग्रवाल वैश्यो का हिंदू धर्म में धर्मान्तरण करवाया, यह कार्य आजादी के बाद तक चलता रहा।हरियाणा में हजारो जैन अग्रवाल आर्य समाजी बन गए लाला लाजपतराय दिगंबर जैन अग्रवाल थे पर आर्य समाज से जुड़कर उन्होंने जैन धर्म त्याग दिया। आज भी कई वृद्ध वैष्णव अग्रवाल यह बताते है कि हम बचपन में भाद्रपद मास में जैन मंदिर जाते थे बाद में हमने जैन और वैष्णव दोनो धर्मो को एक ही मानकर जैन गुरु का सानिध्य नहीं मिलने के कारण हिंदू धर्म का पालन करना शुरु कर दिया। कोलकाता के प्रसिद्ध बेलगछिया जैन मंदिर के निर्माता अग्रवाल श्रेष्ठी थे ऐसे कई विशाल मंदिरो का निर्माण अग्रवाल जैन बंधूओ ने करवाया था पर आज सभी जैन धर्म से परिचय टूटने के कारण वैष्णव धर्मी हो गए। आज वैज्ञानिक युग है ऐसे समय में वास्तविक इतिहास को समझकर युवाओ को अपने मूलधर्म के प्रति श्रद्धा बढानी चाहिए व जैन धर्म का अनुसरण करना चाहिए। वस्तुतः देखा जाए तो अग्रवाल समाज की अहिंसा प्रियता ही इसे जैन घोषित करती है।

सैंतालीस शक्तियाँ अर्थात् आत्मा का अनन्त वैभव

 कुन्दकुन्दाचार्य देव समयसार की पांचवी गाथा में कहते है कि-

मैं शब्द ब्रह्म की उपासना से जन्मा निज वैभव को दिखलाऊगा। वह निज वैभव अनंतगुणशक्तिमय है।
• जब अमृत की एक बूंद ही अमर कर सकती है तो फिर अमृत का घड़ा क्यों पीना ठीक उसी प्रकार जब आत्मा की अपनी शक्तियों में से एक रत्न से ही हम निहाल हो सकते है तब रत्नाकर की तो क्या बात करना।
• ज्ञेयलुब्धता और व्यग्रता के चक्कर में हम रत्नाकर को भूल बैठे हैं ।
          चिदानंद आनंदमय, सकति अनंत अपार |
         अपनो पद ज्ञाता लखे जामें नहिं अवतार ।।
• अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यंती प्रत्यगात्मनः
विषय – आत्मा के ज्ञानमात्र में अनंत शक्तियां उछलती (परिणमती) है |
         १-     अनंत धर्मो के समुदाय रूप परिणमित एक
                  ज्ञप्ति मात्र भाव वह आत्मा है |
• ज्ञान मात्र = ज्ञान की पर्याय ज्ञान अकेला नहीं वरन अभेद अनंत गुणात्मक आत्मा की पर्याय समझना |- पृ-३२

१-     एक-२ शक्ति में अनंत सामर्थ्य |

• अंश में अंशी का पूर्ण अनुभव आया है
• गुण अनंत के रस सबै, अनुभव रस के मांहि |
यातें अनुभव सारिखो, और दूसरों नाहिं ||१५३ ज्ञान दर्पण।।


• आत्मख्याति 👇
परस्परव्यतिरिक्तानंतधर्मसमुदायपरिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण स्वयमेव भवनात् । अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावांत:पातिन्योऽनंता: शक्तयः उत्प्लवंते।

उस ज्ञान के साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाला अनन्तधर्मों के समुदायरूप जो भी लक्षित होता है, पहिचाना जाता है; वह सब वास्तविक आत्मा है।
परस्पर भिन्न अनंत धर्मों के समुदायरूप से परिणत एक ज्ञप्तिमात्रभावरूप स्वयं होने से यह भगवान आत्मा ज्ञानमात्रभावरूप है।
                      यही कारण है कि उसमें ज्ञानमात्रभाव की अन्तः - पातिनी अनंत शक्तियाँ उछलती हैं ।

गुण एक-एक जाकै, परजै अनंत करे; परजै मैं नंत नृत्य, नाना विसतय है । नृत्य मैं अनंत थट, थट मैं अनंत कला; कला मैं अखंडित, अनंत रूप धर्यो है ॥ रूप मैं अनंत सत, सत्ता में अनंत भाव; भाव को लखावहु, अनंत रस भय है । रस के स्वभाव मैं, प्रभाव है अनंत 'दीप'; सहज अनंत यौं, अनंत लगि कर्यौ है ॥
इस सम्पूर्ण विषय को निम्न अधिकारों के माध्यम सुस्पष्ट किया जा सकता है से

● गुणों की पर्यायें

•पर्यायों के नृत्य

•नृत्यों के घाट

•घाटों की कलाएँ

• कलाओं के रूप

• रूपों के सत्

• सत्ताओं के भाव

•भावों के रस

• रसों के प्रभाव

अनन्तता की यह उत्तरोत्तर अनन्त यात्रा हम आप के जीवन की दरिद्रता को दूर करे इस मंगल कामना के साथ विराम लेता हूँ. विशेष आगले अंक में...

• गुण की विशेषता 👇

एक गुण में सब गुणों का रूप होता है। वस्तु में अनन्त गुण हैं और प्रत्येक गुण में सब गुणों का रूप होता है, क्योंकि सत्तागुण है तो सब गुण है। अतः सत्ता के द्वारा सब गुणों की सिद्धि हुई। सूक्ष्मगुण है तो सब गुण सूक्ष्म हैं । वस्तुत्वगुण है तो सब गुण सामान्य विशेष रूप है । द्रव्यत्वगुण है तो वह द्रव्य को द्रवित करता है, व्याप्त करता है । अगुरुलघुत्वगुण है तो सब गुण अगुरुलघुत्व हैं | अबाधित गुण है तो सब गुण अबाधित हैं। अमूर्तिकगुण है तो सब गुण अमूर्तिक हैं ।

इसप्रकार प्रत्येक गुण सब गुणों में है, और सबकी सिद्धि का कारण है । प्रत्येक गुण में द्रव्य गुण पर्याय तीनों सिद्ध करना चाहिए। जैसे एक ज्ञानगुण है, उसका ज्ञानरूप 'द्रव्य' है, उसका लक्षण 'गुण' है। उसकी परिणति 'पर्याय' है और प्राकृति 'व्यञ्जनपर्याय' है ।

•  शक्तियों में अनंतता
1.  अनंतधर्मत्वशक्ति:👉   विलक्षणानंतस्वभावभावितैकभावलक्षणा अनंतधर्मत्वशक्ति:।
    परस्पर भिन्न लक्षणोंवाले अनंत स्वभावों से भावित - ऐसा एक भाव है लक्षण जिसका ऐसी अनंतधर्मत्वशक्ति है ।
2.जीवत्व शक्ति 👉 इससे यह आत्मा अनाद्यनंत है और इससे अनन्त गुण को चैतन्यमात्र युक्त रखने की सामर्थ्य वाला है ।

3. चिति-दृशि शक्ति 👉चितिशक्ति को पृथक् कहने का कारण यह है कि चेतनशक्ति अपनी अनन्त प्रकाशरूप महिमा को धारण करती है यही दिखाने के लिए उसे पृथक् कहा है ।

[  ] चिद्विलासाभिगत वर्णित आत्मा का वैभव
• संज्ञा,संख्या,लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा अनंत गुण का वर्णन
• सभी गुण अपनी अपेक्षा द्रव्य क्षेत्र काल भाव- स्वचतुष्टयात्मक है।
•  चार शंका के समाधान से स्वरूप समझा जाता है-
       आश्रय?                      नित्यानित्य
       एकानेक?                  अस्तिनास्ति?  ?
• गुण विशेष को समझने के लिए सप्त प्रकार
(क्योंकि विशेषज्ञान से विशेषसुख प्राप्त होता है )
( १ ) नाम ( २ ) लक्षण (३) क्षेत्र (४) काल ( ५ ) संख्या ( ६ ) स्थानस्वरूप तथा ( ७ ) फल ।

• अनादि अनन्त, अनादि-सान्त, सादि-सान्त और सादि अनंत- ये चार भङ्ग सब गुणों में सिद्ध होते हैं।
१. वस्तु की अपेक्षा ज्ञान अनादि अनन्त है, २. द्रव्य की अपेक्षा अनादि और पर्याय को अपेक्षा सान्त है, अतः ज्ञान अनादि सांत है, ३. पर्याय की अपेक्षा ज्ञान सादि-सान्त है तथा ४. पर्याय की अपेक्षा सादि और द्रव्य की अपेक्षा अनन्त है, अतः ज्ञान सादि अनन्त भी है ।
• उपचार से प्रत्येक गुण के छत्तीस भेद
    सामान्यभेद 👉 द्रव्य; गुण; पर्याय (3*3)
     विशेषभेद👉स्वजाति, विजाति, स्वजाति-विजाति(मिश्र)
                       सामान्य*(9*4=36)
• प्रत्येक शक्ति में षट् कारक
• प्रत्येक गुण में स्व और पर(अन्य गुण )की अपेक्षा सप्तभंगी घटित होती है । ऐसे अनंत गुणों में अनंत भंगी लागू होती है ।
• द्रव्य गुण पर्याय में कारण कार्यपना (कौन किसका कारण है?) (जिन्होने कारण कार्य को जान लिया उन्होंने सब जान लिया)

• पूज्य गुरुदेव श्री
प्रत्येक शक्ति में लागू होनेवाले 23 बोल

इस समयसार परमागम के परिशिष्ट में समागत 47 शक्तियों पर पूज्य गुरुदेव श्री द्वारा लिखायी गयी नोंध इस प्रकार है ।

1. क्रमरूप और अक्रमरूप अनन्त धर्मसमूह जो कुछ जितना लक्षित होता है,
वह सब ही वास्तव में एक आत्मा है ।

2.ज्ञानमात्र एक भाव की अन्तः पातिनी अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं ।

3. क्रमवर्तीरूप और अक्रमवर्तीरूप वर्तन जिनका लक्षण है ।

4. एक - एक शक्ति अनन्त में व्यापक है ।

5. एक शक्ति अनन्त को निमित्त है ।

6. एक शक्ति द्रव्य-गुण- पर्याय में व्यापती है ।
7. एक शक्ति में ध्रुव उपादान, क्षणिक उपादान है।

8. एक-एक शक्ति में व्यवहार का अभाव है।

9. यही अनेकान्त है, स्याद्वाद है।

10. शक्ति पारिणामिकभाव से है ।

11.कर्ता आदि छह कारक अभिन्न हैं और निरपेक्ष है।

12. प्रत्येक शक्ति में अनन्त का रूप है ।

13. जन्मक्षण, वही नाशक्षण ।

14. उत्पाद, उत्पाद के कारण से है ।

15. काललब्धि है ।

16. अपने-अपने अवसर में होता है

17. निश्चय - व्यवहार है ।
18.शक्ति और शक्तिवान का भेद भी दृष्टि का विषय नहीं है।

19.क्रमवर्ती ज्ञानपर्याय, वह पर को जानती है, यह भी व्यवहार है ।

20. जाननेवाला, जाननेवाले का है, ऐसे स्वस्वामी अंश से क्या साध्य है ।

21. राग को उपादेय माने, वह आत्मा का हेय मानता है; - आत्मा को उपादेय माने, वह राग को हेय मानता है ।

22.प्रत्येक शक्ति में अकार्य-कारण का रूप है ।

23. प्रत्येक शक्ति में त्याग-उपादानशून्यत्व है ।
👉परमागम श्री समयसारजी की ४७ शक्तियों के उपरान्त शास्त्र समुद्र का मन्थन करके पूज्य गुरुदेवश्री ने खोज निकाली हुई कितनी ही शक्तियाँ...और भी है।

• गुरूदेव श्री द्रव्य में कितनी शक्तियाँ हैं इसका भाव भासन कराने के लिए कहते थे-
    एक द्रव्य में शक्तियाँ
     जीव अनंत
    पुद्गल अनंतानंत
    तीन काल के समय उससे अनंतानंत
    आकाश के प्रदेश उससे अनंतानंत
    उससे अनंतगुणे जीव द्रव्य में अक्रम गुण/शक्ति
• सामान्य फल- सुख या आनन्द अनन्त गुणों की उस शुद्धता का फल सुख है।
• लाभ-

1} चिदानंद आनंदमय, सकति अनंत अपार ।
    अपनो पद जाता लखे जामे नहि अवतार || चिद्विलास

3} विशेषज्ञान से विशेषसुख प्राप्त होता है।
                                      - चिद्विलास

2} गुण अनंत के रस सबै, अनुभव रस के माहि
    यातै अनुभव सारिखो, और दूसरों नाहि || १५३||
                                           -ज्ञान दर्पण

4] सुख या आनन्द अनन्त गुणों की उस शुद्धता का फल सुख है।

5) अनंत गुणों को जानने से दीनता एवं हीनता का भाव मिटता है।

6} परसन्मुखता मिटती है एवं स्वसन्मुखता होती है।

7] अगाध ज्ञान स्वभाव की विशेष महिमा आती है।

8} अनंत उछलती हुई शक्ति को जानकार तृप्ति का भाव जागृत होता है।

जैनी भये जैनी के निंदक

 जैनी भये जैनी के निंदक

आचार्य कुन्दकुन्द देव का नाम आज सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज में अग्रणीय है। गंभीरता से विचार किया जायें तो हम पायेंगे कि- वास्तव में आचार्य कुन्दकुन्द देव को संरक्षणता की आवश्यकता कदापि नहीं हैं। लेकिन हाँ यदि दिगम्बर जैन समाज को अपना मूल आधार बनाये रखने के लिए हमें निःसंदेह कुन्दकुन्द आचार्य देव की महती आवश्यकता है।  आचार्य कुन्दकुन्द कितने महान आचार्य थे - उनकी प्रतिभा पर दिगम्बर जैन समाज को कोई संदेह नहीं है ।
"मंगंलम् कुन्दकुन्दार्यो" -गणधरदेव के बाद उनका नाम बडे ही सम्मान से लिया जाता है।
        किंतु वर्तमान परिस्थिति में कुछ विद्वान जैनधर्म का इतना सीधा- सच्चा स्वच्छ मार्ग होने पर भी कुछ (तथाकथित) लोग जैन धर्म का मार्ग मलिन करना चाहते है । यदि हम इतिहास में दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि - आचार्य कुन्दकुन्द देव ने किन - किन विषम परिस्थितियों में इस कालजयी कृति की रचना कर जैनधर्म का मूल अध्यात्म सुरक्षित रखा परंतु बत॰॰॰

कैसे थे वे लोग जो टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर भी सीधा चला करते थे। गजब की बात तो यह है कि लोग आज सीधे- साधे रास्ते पर भी तेरा- मेडा चला करते हैं ।

• यद्यपि NO REPLY IS BEST  REPLY लेकिन "मौनं सम्मति लक्षणम्" इसके लिए ही मैं यहाँ कुछ कहता हूँ वरना  अनागत पीढी पूछेंगी; कि - जब ये हुआ तो आप खामोश क्यों थे ???
खैर;
मुझे प्रतीत होता है कि- सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को अपना अस्तित्वबोध कराने के लिए या हम भी कोई चीज़ है तथा सम्पूर्ण आत्मलाभार्थियों को अपने ऊपर ध्यान केंद्रित करने की इच्छा से यह बेबुनियात पोपगेंडा खडा किया है।
तथोक्तं-
घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद्रासभरोहणम् |
येन केन प्रकारेण प्रसिद्ध: पुरुषो भवेत् ||
अर्थ- घड़े फोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे के ऊपर चढ़कर. कुछ लोग किसी भी तरह, कुछ भी करके लोकप्रिय होना चाहते हैं ||

परीक्षामुख में स्पष्ट कहा है कि - "...नोदाहरणम्" उदाहरण वादविवाद का विषय नहीं होता तभी तो उसे विजिगीषु कथा से वंचित रखा है ।
दूसरी यह बात भी तो है कि- उदाहरण (दृष्टांत )एक देश होते है ।
यदि दृष्टांत को सर्वदेश माना जाएगा तो वह दृष्टांत न होकर सिद्धांत ही बन जायेंगा।
यद्यपि मैं  क्या कोई भी दृष्टांत की महती उपयोगिता का अपलाप नहीं कर सकता। यदि दृष्टांत की महती उपयोगिता जाननी होवें तो प्रो॰ वीरसागर जी दिल्ली का "दृष्टांत स्फुटायते मति: " लेख देखना ही पर्याप्त है।
लेकिन दृष्टांत विवाद का विषय नहीं हो सकता क्योंकि वह प्रयोजन नहीं होता और सही दृष्टांतों को भी गलत समझकर  अप्रमाणिक घोषित करना एक अपराध है।
एक बात यह भी है कि- "नयविभागानभिज्ञोऽसि" अल्पज्ञान से अंध हुए ये लोग मदोन्मत हाथी की तरह कुछ "मैं सब कुछ जानता हूँ "- मैं सब कुछ जानता हूँ-इस अभिमान में दग्ध होकर सर्वमान्य दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द देव के ऊपर ही अंगुली उठाते हैं।
श्री मद् राजचंद्र जी ने सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने के तीन कारण बताये
  1) गुरू का गुरू बनना चाहता है
2)  तीव्र विषयाशक्ति
  3) मैं बहुत जानता हूँ- लेकिन आपमें अनुरंजित पहला और तीसरे कारण से यह जान पडता है कि- आप अभी सम्यक्त्व से योजनों दूर है।
कुन्दकुन्द आचार्य देव ने तो पांचवी गाथा में हमें जागरूक किया था कि - "छलं न घेतव्वम्" और आप वही कर बैठे सो जैसे पिता जिस कार्य को मना करें और पुत्र वहीं करें सो वह दण्डयोग्य है सो आपने भी वही कार्य कर सम्पूर्ण परंपरा को कलंकित करने का प्रयास किया है।
यह समयसार तो ऐसी संजीवनी है जिसने कई लोगों के जीवन में क्रांति लाई; कईयों का तो इसने सम्पूर्ण जीवन ही परिवर्तित कर दिया ।
• आ॰ शांति सागर जी महाराज कहा करते थे कि-
      समयसार पड़े जो कोई, ताही तनाव कभी नहीं होई।
और हा॰मा॰॰धिक्॰॰॰ खेद(बत) है कि - आज आपने समयसार को ही एक तनाव का विषय बना दिया।
बलिहारी पंचम काल की इसमें जो हो सो कम है ...
कविराज द्यानतराय ने कहा ही -
  जैनी भये जैनी के निंदक, पंचम काल जोरा ।
   द्यानत सब देखकै चुप रहिए, जग में जीवन थोडा।।
        इत्यलम्
                - आप्त जैन शास्त्री