Friday, November 5, 2021

क्रमबद्ध पर्याय और छोटे दादा

 वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्रतिपादक क्रमबद्धपर्याय और डॉ भारील्ल -


● इस पंचम काल में जो स्थान आचार्य समंत भद्र को सर्वज्ञसिद्धि करने में प्राप्त है जो स्थान दिगम्बर परम्परा को पुनर्स्थापित करने के लिए आचार्य कुंदकुंद को प्राप्त है जो स्थान न्याय को चरम सीमा तक ले जाने के लिए आचार्य अकलंक देव को प्राप्त


है वही स्थान क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि करने के लिए और उस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी और आदरणीय छोटे दादा को प्राप्त है


• पण्डित प्रकाशचन्द 'हितैषी'.


'क्रमबद्धपर्याय' का नाम अर्ध शताब्दी पूर्व सुनने को नहीं मिलता था यद्यपि जिनागम में क्रमनियमित शब्द से आचार्य अमृतचन्द्र


ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है किन्तु यह विषय बहुत चर्चित विषय नहीं था


जो सोच फिकर में लगता है, वह अपनी ताकत खोता है। चेष्टाएँ थक कर रह जाती, जो होना है सो होता है ॥


• लेखक ने उस प्रसंग की चर्चा भी की है, जिसके कारण उसे यह समझने का बनाव बना, लेखक स्वयं लिखता है -


"मेरी समझ में यह कैसे आई इसकी भी एक कहानी है, इस प्रसंग पर उसके उल्लेख करने का लोभ संवरण कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। बात यों हुई कि हम उत्तर प्रदेश के एक गाँव बबीना कैन्ट (झाँसी) में दुकान करते थे। यह बात ईस्वी सन् १९५६ के दशहरे के आस-पास की है। मेरे अग्रज पण्डित रतनचन्द शास्त्री दुकान का सामान लेने झाँसी गए थे। वहाँ एक व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया कि 'जब केवली भगवान ने जैसा देखा-जाना कहा है, वैसा ही होगा, उसमें कोई फेरबदल सम्भव नहीं है, तो फिर पुरुषार्थ कहाँ रहा? जब हम कुछ कर ही नहीं सकते तो फिर हम कुछ करें ही क्यों?' प्रश्न ने ही उनके हृदय को झकझोर डाला। वे स्तब्ध रह गए उसके उत्तर में उन्होंने यद्वा तद्वा कुछ भी कहकर पाण्डित्य प्रदर्शन न करके यही कहा 'भाई। तुम बात तो ठीक ही कहते हो, परन्तु में अभी इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकता, अगले शनिवार को आऊँगा, तब बात करूंगा।' वह तो चला गया, पर वे रास्ते भर विचार करते रहे। आते ही कोई और बात किए बिना मुझसे सीधा वही प्रश्न किया में भी विचार में पड़ गया। परस्पर चर्चा होती रही, पर बात कुछ जमी नहीं शाम को प्रवचन में भी जब मैंने यही चर्चा की, तब एक अभ्यासी बाई बोली- इसमें क्या है? यह तो कानजी स्वामी की क्रमबद्धपर्याय है। उससमय तक हमने कानजीस्वामी काबल से आगम में से जो जैनदर्शन के अनमोल सिद्धान्त निकाले; क्रमबद्धपर्याय' भी उनमें से एक सिद्धान्त है, जिसे उन्होंने अपने १३ प्रवचनों के माध्यम से विस्तार से समझाया है, जिसके पुस्तकाकार प्रकाशन का नाम 'ज्ञान स्वभाव ज्ञेय स्वभाव है। 'क्रमबद्ध पर्याय' जैसे सिद्धान्त के उद्घाटक गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने जिस पुस्तक की प्रसन्नता से भरी सभा में बारम्बार प्रशंसा की हो, स्वयं ने बारम्बार पढ़ा हो और अपने श्रोताओं को पढ़ने की तथा घर-घर पहुँचाने की प्रेरणा दी हो, उस कृति के बारे में अब कहने को शेष रह ही क्या जाता है?


• सर्वप्रथम स्वामीजी के दर्शन तब हुए, जब वे १९५७ ई. में शिखरजी की यात्रा पर निकले थे। बबीना पड़ाव पर बिना कार्यक्रम के ही उन्हें सड़क पर बलात् रोक लिया था। वहाँ हमने घंटों पूर्व ही स्टेज बनाकर रखा था और वहाँ सारी समाज उपस्थित थी। स्वामीजी ने वहाँ सिर्फ पाँच मिनट का मांगलिक प्रवचन ही किया था। उन्हीं के साथ हम सब भी सोनागिरी चले गये तीन दिन तक वहाँ उनके प्रवचनों का लाभ सपरिवार लिया। उनसे सामान्य चर्चा भी की उसके कुछ दिनों बाद ही चाँदखेड़ी में उनके प्रवचनों का लाभ मिला। उस समय मेरी देव शास्त्र-गुरु पूजन प्रकाशित ही हुई थी, उसकी जयमाला में क्रमबद्धपर्याय की


पोषक कुछ पंक्तियाँ आती हैं। जो इसप्रकार है "जो होना है सो निश्चित है, केवलीज्ञानी ने गाया है। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बन कर पर का कर्त्ता अब तक, सत् न प्रभो सन्मान किया।


मैंने यह अपनी प्रथम प्रकाशित कृति स्वामीजी को समर्पित की थी। उसके समर्पण में लिखा था "उन पूज्य श्री कानजी स्वामी के कर कमलों में सादर समर्पित, उन्होंने कलिकाल में 'क्रमबद्ध पर्याय' का स्वरूप समझाकर


हम जैसे पामर प्राणियों पर अनन्त उपकार किया है।" जब मैंने उक्त कृति चाँदखेड़ी में स्वामीजी को समर्पित की; तब उन्होंने समर्पण पढ़कर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा


"तुम क्रमबद्धपर्याय जानते हो?" उसके उत्तर में जब मैंने उत्साहपूर्वक 'हाँ' कहा, तब वे कहने लगे "सोनगढ़ आना, वहाँ चर्चा करेंगे।"

● क्रमबद्ध पर्याय पुस्तक


चार अनुयोग से चर्चा, निश्चय व्यवहार, योग्यता, स्वकर्तृत्व-सहज कर्तृत्व- अकर्तृत्व, पांच समवाय, द्रव्य गुण पर्याय, स्यादवाद अनेकांत, त्रिलक्षणपरिणाम पद्धति, 6 शक्तियों की चर्चा, अकाल मरण, खानियांतत्वचर्चा, आइंस्टीन का उद्धरण, प्रश्नोत्तर, पूज्य गुरुदेव श्री का इंटरव्यू कुछ प्रश्न उत्तर ।


• क्रमबद्ध पर्याय पर श्रद्धा करने से हमारा मनोबल टूटता है तो मिथ्या मनोबल तो टूटना ही चाहिए परंतु अनंत पुरुषार्थ जागृत


होता है क्रमबद्ध पर्याय निर्णय करने वाले के अनुभव नहीं होते। .


• इसको समझने से गड़बड़ हो जाती है दिमाग चकराता है ऐसा नहीं है इसको मानने से साड़ी गड़बड़े दूर हो जाती हैं • रील सिनेमा, सीढ़ियों का उदाहरण, वजन तोलने वाली मशीन का उदाहरण (स्वयंचलित व्यवस्था सबसे अच्छी व्यवस्था है),


चोर का उदाहरण, सिनेमा हॉल का उदाहरण व्यवस्था के लिए, मोती की माला का उदाहरण


• जिनके माथे भाड़ में डूबे मझधार में। हम तो उतरे पार झोंक भार को भाड़ में ।।


● मन्तव्य -


• एक सच्चा जैन होने के लिए क्रम बद्ध पर्याय का मानना बहुत जरूरी है क्रमबद्ध पर्याय तो चारों अनुयोगों में है और क्रमबद्ध पर्याय लिखकर डॉ. साहब ने उसका बहुत मर्म खोला है। आचार्य श्री जयसागरजी महाराज


• अव्यवस्थित पढ़ना भी एक निश्चित व्यवस्थित क्रम के अनुसार ही होता है इस लाइन में मुझे बड़ा आकर्षित किया।


रंगमंच की सभी वस्तुएं हमको बिखरी बिखरी सी लगती हैं


पर वे तो पूर्ण व्यवस्थित हैं यह डायरेक्टर को दिखती है। मुनि श्री विजय सागर जी महाराज


• क्रमबद्ध पर्याय का विरोध आचार्य अमृत चंद्र का ही विरोध है और आचार्य अमृत चंद्र का विरोध सर्वदता का विरोध है और जो भी इसका विरोध करते हैं वे केवल इस आधार पर इसका विरोध करते हैं कि डॉक्टर भारिल सोनगढ़ पक्ष के हैं और सोनगढ़ पक्ष की ओर उठ विद्वानों की वक्र दृष्टि है अन्यथा वे भी विरोध नहीं कर सकते थे। ब्रह्मचारी जगन मोहन लाल जी शास्त्री


कटनी


दादा के विचार


• जिनागम के ग्रंथ में से कोई भी पन्ना खोलो, मैं उस में से तुम्हें क्रमबद्ध पर्याय निकाल कर बताऊंगा।


•एक ने कहीं, दूजे ने मानी।


नानक कहें दोनों है ज्ञानी ॥


अर्थ- वे तो बहुत महान है ही जिनने ये तथ्य हमें बताया साथ ही साथ वे भी कम भाग्यशाली नहीं हैं।


क्रमबद्धपर्याय का निर्णय अनन्त पुरुषार्थ का कार्य है। • वे पंक्तियों जो मुझे अच्छी लगी


कुछ करो नहीं, बस होने दो, जो हो रहा है, बस उसे होने दो। फेरफार का विकल्प तोड़ो, सहज ज्ञाता-दृष्टा बन जाओ। देखो नहीं देखना सहज होने दो, जानो नहीं, जानना सहज होने दो रमो भी नहीं, जमो भी नहीं, रमना-जमना भी सहज होने दो।


• "क्रमबद्ध पर्याय औरों के लिए एक सिद्धान्त हो सकती है, एकान्त हो सकती है, अनेकान्त हो सकती है, मजाक हो सकती है, राजनीति हो सकती है, पुरुषार्थप्रेरक या पुरुषार्थ नाशक हो सकती है; अधिक क्या कहें किसी को कालकूट जहर भी हो सकती है। किसी के लिए कुछ भी हो मेरे लिए वह जीवन है, अमृत है; क्योंकि मेरा वास्तविक जीवन, अमृतमय जीवन, आध्यात्मिक जीवन - इसके ज्ञान, इसकी पकड़ और इसकी आस्था से ही आरम्भ हुआ है। "

• दादा की जो अभी सहजता और तत्व चिंतन नाम की पुस्तक आई है वह क्रमबद्ध पर्याय की ठोस नींव पर ही खड़ी हुई हैं


• लेखक आगे लिखता है "क्रमबद्ध पर्याय की समझ मेरे जीवन में मात्र मोड़ देनेवाली संजीवनी है। • क्रमबद्ध पर्याय की सहज स्वीकृति में जीत ही जीत है, हार है ही नहीं।       - क्रमबद्ध पर्याय, पृष्ठ- १३


• यदि क्रमबद्धपर्याय की बात ध्यान में न आती तो न जाने क्या होता? होता क्या? सब कुछ ऐसे ही चलता रहता और बहुमूल्य मानवभव यों ही चला जाता। पर जाता कैसे, जबकि हमारी पर्याय के क्रम में क्रमबद्धपर्याय की बात समझ में आने का काल जो पक गया था। इसके बाद तो इसीकारण अनेक सामाजिक उपद्रवों का भी सामना करना पड़ा, शारीरिक व्याधियाँ भी कम नहीं थीं, पर क्रमबद्ध की श्रद्धा के बल पर आत्मबल कभी नहीं टूटा। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा एक ऐसी संजीवनी है, जो हर स्थिति में धैर्य को कायम रखती है, शान्ति प्रदान करती है, कर्तृत्व के अहंकार को तोड़ती है, ज्ञाता दृष्टा बने रहने की पावन प्रेरणा देती है अधिक क्या? यो कहिए न कि जीवन को सफल और सार्थक बना देती है।


• अबतक हम यही समझते थे मति के अनुसार गति होती। पर अब तो ऐसा लगता है गति के अनुसार मति होती।


• जब भी कोई प्रतिकूल परिस्थिति बनती थी उसमें भी अत्यधिक विचलित नहीं होते थे उसके पीछे उनका क्रमबद्ध पर्याय सिद्धांत पर अडिग विश्वास ही था


अपने शास्त्रियों से कहते हैं कि क्रमबद्ध पर्याय के विरोध में भी एकात लेख लिखो। इसकी चर्चा होनी चाहिए। 

● अंत में -


लहरें उठे सहज उठने दो तरल तरंगित रहने दो।


जितना उछले यह ज्ञानोदधि उतना उसे उछलने दो।।६४।।


अरे उछलकर कहाँ जायेगा अपनी सीमा के बाहर अपनी सीमा में सीमित वह सचमुच ही सीमन्धर है।। ६५ ।।


(ज्ञान की प्रत्येक पर्याय तो निश्चित है ही है साथ ही साथ ज्ञान का ज्ञेय भी नक्की है)


• श्रद्धा के लेवल पर तुमको जब महा सत्य स्वीकृत होगा। 

तुमको इस लौकिक जीवन में हलकेपन का अनुभव होगा।। 

चिंता की रेखाओं के बल ढीले होंगे फीके होंगे। 

चिन्ता बदलेगी चिन्तन में अर रोम-रोम पुलकित होंगे ॥ ९७ ।


●आनन्द महोदधि उमडेगा श्रद्धा के बादल गरजेंगे।

अनुभव की बिजली चमकेगी रिम-झिम रिम-झिम धन बरसेंगे।

समकित का सावन आवेगा अन्तरमन आनन्दित होगा। 

शिवमारग की पगडण्डी पर धीरे-धीरे चलना होगा।। ९८।।

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