Friday, November 5, 2021

गुण की व्युत्पत्ति और उसके पर्यायवाची नाम

 गुण की व्युत्पत्ति और उसके पर्यायवाची नाम


 तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु ।
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ॥९०।।

                                                      - प्रवचनसार

 गुण क्या है ?
आज जैनदर्शन में द्रव्य का लक्षण 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम्"  तत्वार्थसूत्र में कहा है, अत: गुण का स्वरूप जानना आवश्यक है क्योंकि गुणों को जाने बिना द्रव्य को जानना भी असम्भव हो जाएगा। यद्यपि वैशेषिक आदि दर्शनों ने गुण को द्रव्य से सर्वथा पृथक् पदार्थ के रूप में मान्य किया है, लेकिन जैनदर्शन ने उसे द्रव्य से सर्वथा पृथक् पदार्थ के रूप में मान्य नहीं किया है यद्यपि उसे कथंचित् पृथक् पदार्थ के रूप में उसे मान्य किया गया है। हमारे जिनागम में न केवल द्रव्यानुयोग में अपितु सभी अनुयोग में गुण शब्द का प्रयोग द्रष्टंगत होता है –

•   चारों अनुयोग में गुण शब्द का प्रयोग

   1)  प्रथमानुयोग👉 स्थान /देश अर्थ

   2) करणानुयोग 👉 गुणस्थान / पंच भाव/गुण श्रेणी निर्जरा/ गुण संक्रमण

  3) चरणानुयोग 👉 मूलगुण/उत्तर गुण/महाव्रत/क्षमादि धर्म/ 64 ऋद्धि / अणिमादि 8 गुण/संयमादि

   4)द्रव्यानुयोग 👉 धर्म /गुण/ शक्ति / आत्मा को गुण कहा/सम्यग्दर्शनादि गुण

 
गुण का स्वरूप
" द्रव्याण्याश्रयत्वेनेयति द्रव्यैराश्रयभूतैर्यन्त इति वा अर्था गुणाः"          - प्रवचनसार

"जो द्रव्यों को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं या आश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, वे अर्थ गुण हैं।"

 गुण की व्युत्पत्ति-

1) गुण की व्युत्पत्ति करते हुए श्रीदेवसेनाचार्य कहते हैं -

  " गुण्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं द्रव्यान्तराद्यैस्ते गुणाः "     

                                             -आलापपद्धति, 16
अर्थात् जो द्रव्य को द्रव्यान्तरों से पृथक् करता है, उसे गुण कहते हैं।

 
2)  श्रुतसागरसूरि ने इस व्युत्पत्ति में 'विशिष्यते (तत्वार्थवृत्ति, 5/38 ) पद और भी जोड़ दिया है अर्थात् गुणों के कारण द्रव्यों में विशेषता आती है।

 
3) इसी कारण आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वप्रदीपिका में कहा है -            "अन्वयविशेषणं गुण:"                

                                                    -( प्रवचनसार, 80)
उन्होंने द्रव्य को अन्वय कहा है और गुण को अन्वय के विशेषण कहा है और पर्यायों को अन्वय के व्यतिरेक कहा है। वहीं अन्यत्र वे गुणों को 'विस्तारविशेष' (तत्वप्रदीपिका, प्रवचनसार, 93) भी कहते हैं।

   एकमात्र द्रव्य जिनका आश्रय है ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणों से रचित होने से द्रव्य गुणात्मक हैं ।

3) स,सि./५/३८/३०६
"पर उदधृत गुण इदि दव्वविहाणं" ।
अर्थ- द्रव्यमें भेद करने वाले धर्म को गुण कहते हैं।

 4) न्या.दी./३/७८/१२१ यावद्द्व्यभाविनः सकलपर्यायानुवतिनो गुणाः बस्तुत्वरूपरसगन्धस्प्शादयः । - जो सम्पूर्ण द्रव्यमें व्याप्त कर रहते हैं और समस्त पर्यायोंके साथ रहनेवाले हैं उन्हें गुण कहते हैं । और वे वस्तुत्व, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि हैं ।

 5) सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द जैन ने लिखा है-

"जिसके कारण द्रव्य सजातीय से मिलते हुए और विजातीय से भिन्न प्रतीत होते हैं, वे गुण कहलाते हैं । ये गुण ही अनुवृत्ति और व्यावृत्ति के साधक होते हैं।" (जैन न्याय, भाग-1,2)

 
गुण के पर्यायवाची -

 1) पाण्डे राजमलजी ने कहा है - शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील, आकृति और अङ्ग एकार्थवाचक शब्द हैं। ये सब एकार्थवाची है।

 "शक्तिर्लक्ष्मविशेषो, धर्मो रूपं गुणः स्वभावश्च।
    प्रकृतिशीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः॥"        

                                             - पञ्चाध्यायी, पूर्वाद्,48
लक्षणं च गुणश्चाङ्गं शब्दाञ्चैकार्थवाचकाः।(उत्तरार्द्ध, 478)

 2) कोशकारों ने गुण शब्द के अनेक अर्थ बताये हैं, जिनके आधार पर हम गुण के वास्तविक भाव तक पहुँच सकते हैं। जैसे - धर्म, स्वभाव, विशेषता, श्रेष्ठता, गौरव, लाभ, प्रभाव, परिणाम, रस्सी, धनुष, डोरी, खूबी, प्रकृति का अवयव या उपादान, इन्द्रियजन्य विषय - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द, गुणाकार, गौणत्व, आश्रित, अंश, आधिक्य, विशेषण, गुणादेश, शब्दसमूह का अर्थ ज्ञानेन्द्रिय, विशिष्ट भोजन या परित्याग आदि।

 

 
गुण के पर्यायवाची लक्षण का स्वरूप -

गुण के संबंध में अन्य मत द्वारा माने हुए समवाय संबंधादि मिथ्या हैं जिन मत के अनुसार तादात्म्य संबंध ही समवाय संबंध है।

 गुणांशके अर्थमें गुण शब्दका प्रयोग

 
त. सू./५/३३-३६ स्निग्धरुक्षत्वात् बन्धः ॥३३॥ न जघन्थगुणामां ।२४॥ गुणसाम्ये सदशा.स ।३५॥ द्वघधिकादि गुणानां तु । 3 ६।

 स. सि./५/३५/३०४/१० गुणसाम्यग्रहणं तुल्यभागसंप्रत्ययार्थम् ।

 रा. वा./५/३४/२/४६८/२१ तत्रेह भागे वर्तमानः परिगृह्यते । जघन्यो गुणो येषां ते जधन्यगुणास्तेषां जधन्यगुणानां नास्ति बन्ध ।

 

ध. १४/५,६,५३६/४५०/५
एयगुणं ति किं घेण्पदि जहण्णगुणस्स गहणं ।
सो च जहण्णगुणो अणं तेहि अविभागपडिच्छेदेहि णिन्पण्णो ।

 ध. १४/५,६.५४०/४५१/५ गुणस्स विदियअनत्थाविसेसो विदियगुणो णाम । तदियो अवर्थाविसेसो तदियगुणो णाम । १. स्निग्धत्व और रूक्षत्वसे बन्ध होता है ॥३३ ॥ जन्य गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता है !३४॥ समान गुण होनेपर तुल्य जातिवालोंका बन्ध नही होता है ।३। दो अधिक गुणवालोका बन्ध होता २. तुर्य शक्तव शोंका ज्ञान करानेके लिए 'गुणसाम्य' पदका ग्रहण किया है । ३. यहाँ भाग अर्थ विवक्षित है। जिनके जघन्य (एक) गुण होते हैं वे जघन्य गुण कहलाते हैं । उनका बन्ध नहीं होता। ४, एक गुणसे जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है जो अनन्त अबिभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न है । ५. उसके ऊपर एक आदि अविभागी प्रति च्छेदकी वृद्धि होनेपर गुणकी द्वितीयादि अवस्था विशेषोंकी द्वितीय गुण तृतीयगुण आदि संज्ञा होती है।

 

गुण का अनेकार्थों में प्रयोग-

 1) गुणशब्दोऽनेकस्मिन्र्थे दृष्टप्रयोगः कश्चिद्वूपादिषु वर्ते रूपादयो गुणा इति। क्वचिद्भागे वर्तते द्विगुणा यवास्त्रिगुणायवा इति। क्वचिदुपकारे वर्तते गुणज्ञः साधुः उपकारज्ञ इति यावत्। क्वचिद्रव्ये वर्तते - गुणवानयं देश इत्युच्यते अस्मिन् गावः शस्यानि च निष्पद्यन्ते। क्वचित्समेष्ववयवेषु द्वगुणा रग्जुः त्रिगुणा रग्जुरिति । क्वचिदुपसर्जने गुणभूता वयमस्मिन् ग्रामे उपसर्जनभूता इत्यर्थः ।      - तत्त्वार्थवार्तिकम्, 2/34
अर्थ- गुण का अनेक अर्थों में प्रयोग का निर्देश करते हुए आचार्य अकलंक कहते हैं - गुण शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे रूपादि गुण (रूप-रस-गन्ध-स्पर्श इत्यादि गुण), में गुण का अर्थ रूपादि है। 'दो गुणा यव तीन गुणा यव' में गुण का अर्थ भाग है। 'गुणज्ञ साधु' में या 'उपकारज्ञ' में उपकार अर्थ है। 'गुणज्ञ साधु' में या 'उपकारज्ञ' में उपकार अर्थ है। 'गुणवान देश' में द्रव्य अर्थ है, क्योंकि जिसमें गायें या धान्य अच्छा उत्पन्न होता है, वह देश गुणवान कहलाता है। 'द्विगुण रज्जु त्रिगुण रज्जु' में समान अवयव अर्थ है । 'गुणभूता वयम् ' में गौण अर्थ है।

 

2) जिनागम में गुणस्थान के अर्थ में भी गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। जैसे -
  "जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं।
      जीवा ते गुण सण्णा, णिहिट्टा सव्वदरिसीहिं ॥"

                      - गोम्मटसार जीवकाण्ड, 8; धवला 1/161

अर्थात् दर्शनमोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होनेवाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने  'गुणस्थान' इस संज्ञा से किया है।

 

3) संयम, संयमासंयम तथा सम्यक्त्वादि भावों को भी गुण के द्वारा जाना जाता है।

 

4)  को पुण गुणा?संजमो सजमासंजमो वा।   

                                                   (-धवला, 15/174)

अर्थात् संयम और संयमासंयम भी गुण कहे जाते हैं।

 5) सम्यग्दर्शनादयो गुणाः, तैः प्रकृष्टा गुणाधिका इति

      विज्ञायन्ते ।                        - तत्वार्थवार्तिक, 7/11
अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि गुण हैं, वे गुण जिनके अधिक हैं, वे गुणाधिक कहलाते हैं।

 
6) इसी प्रकार श्री वीरसेनस्वामी जीव के भावों तथा आत्मा को भी गुणसंज्ञा से विभूषित करते हैं
शङ्का- जीव कहाँ रहते हैं?

समाधान - जीव, गुणों में रहते हैं।

 शङ्का वे गुण कौनसे हैं?
समाधान औदयिक, ओपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक - ये पाँच प्रकार के गुण (भाव) हैं ।

 

7) पञ्चसंग्रह में कहा भी है -      'जीवा ते गुणसण्णा"
- इन गुणों के साहचर्य से आत्मा को भी 'गुण' संज्ञा प्राप्त

होती है।"                       (-पञ्चसंग्रह प्राकृत, 1/3)

 
8) श्री ब्रह्मदेवसूरि ने भी स्वभाव-विभावरूप गुणों की चर्चा की है-
"जीवस्य यावत् कथ्यन्ते सिद्धत्वादयः स्वभावपर्यायाः, केवलज्ञानादयः स्वभावगुणा असाधारणा इति। अगुरुलघुका स्वभावगुणास्तेयामेव गुणानां षड्ढानिवृद्धिरूपस्वभाव पर्यायाश्च सर्वंद्रव्यसाधारणाः। तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणाः नरनारकादिविभाव-पर्यायाश्च इति।

इदानीं पुद्गलस्य कथ्यन्ते केवलपरमाणुरूपेणावस्थानं स्वभावपर्यायः वर्णान्तरादि-रूपेण परिणमनं वा। तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति। द्वयणुकादिरूप-स्कन्धरूपविभावपर्यायास्तेष्वेव द्वगणुकादिस्कन्धेषु वर्णान्ध विभावगुणाः इति भावार्थः। अत्र शुद्धगुणपरयायसहितः शुद्धजीव एवोपादेय इति भावार्थः।           -बृहद्रव्यसंग्रह

 अर्थ- "जीव की अपेक्षा कहते हैं सिद्धत्वादि स्वभावपर्याय हैं और केवलज्ञानादि उसके असाधारणस्वभावगुण हैं और अगुरुलघु उसके साधारणस्वभावगुण हैं, उन्हीं गुणों की षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप स्वभावपर्याय होती है, जो सर्व द्रव्यों में साधारण है। उसी जीव के मतिज्ञानादि विभावगुण हैं तथा नर-नारकादि विभावपर्यायें हैं ।

 
अब पुद्गल के सम्बन्ध में कहते हैं - केवल परमाणुरूप से स्थित रहना, स्वभावपर्याय है अथवा एक वर्ण से वर्णान्तररूप परिणमन करना, स्वभावपर्याय है। उसी परमाणु में वर्णादि स्वभावगुण हैं। द्व्यणुकादिस्कन्धरूप पर्यायें विभावपर्यायें हैं, उन द्व्यणुकादि स्कन्धों में रहनेवाले वर्णादिक गुण विभावगुण होते हैं ऐसा भावार्थ है। यहाँ
शुद्धगुण-पर्यायों से सहित शुद्धजीव ही उपादेय है - ऐसा तात्पर्य है।"

 

9)आचार्य श्री वसुनन्दि ने तो अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों को ही गुण कहा है। वे कहते हैं -

 "अणिमा महिमा लघिमा, पागम्म वसित्त कामरुवित्तं।
       ईसत्त पावणं तह, अट्ठगुणा वणिया समए॥"

                                    -  वसुनन्दि श्रावकाचार, 513
अर्थात् अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशित्व, कामरूपित्व, ईशत्व और प्राप्ति ये आठ गुण जिनागम में कहे गये हैं।"

 

10) पं.ध./पू./४८ शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण' स्त्रभावश्च। प्रकृतिशीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः ४८)

पं.ध./उ./४७८ लक्षणं च गुणश्चाडगं शब्दार्चैंकार्थवाचका ४७८ -- १. হक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थ के बाचक हैं ।४८॥ २. लक्षण, गुण और अंग यै सब एकार्थवाचक शब्द हैं ।

इस प्रकार गुण की व्युत्पत्ति और पर्यायवाची समझ कर उसके लाभ के बारे में कुछ विचार करना चाहिए-

" निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से।
तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।।90।।"
उक्त गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिसप्रकार एक कमरे में अनेक दीपक जलते हों तो ऐसा लगता है कि सबका प्रकाश परस्पर मिल गया है, एकमेक हो गया है; किन्तु जब एक दीपक उठाकर ले जाते हैं तो उसका प्रकाश उसके ही साथ जाता है और उतना प्रकाश कमरे में कम हो जाता है; इससे पता चलता है कि कमरे में विद्यमान सभी दीपकों का प्रकाश अलग-अलग ही रहा है।

 उसीप्रकार इस लोक में सभी द्रव्य एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं, महासत्ता की अपेक्षा से एक ही कहे जाते हैं; तथापि स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा वे जुदे-जुदे ही हैं। इस लोक में विद्यमान सभी चेतन-अचेतन पदार्थों से मेरी सत्ता भिन्न ही है ह ऐसा निर्णय होते ही पर से एकत्व का मोह विलीन हो जाता है और राग-द्वेष भी टूटने लगते हैं।

यहाँ  एक प्रश्न होता है कि यद्यपि ज्ञान जीव का असाधारण गुण है, विशेष गुण है; तथापि पाये जाने वह सभी जीवों में पाया जाता है । सभी जीवों में के कारण एकप्रकार से वह सामान्य गुण भी है। इस ज्ञान नामक गुण के माध्यम से जड़ से भिन्न सभी जीवों को तो जाना जा सकता है; परन्तु परजीवों से भी भिन्न अपने आत्मा को नहीं । हमें तो परजीवों से भी भिन्न निज आत्मा को जानना है, हम उसे कैसे जाने ?

 मेरा ज्ञानगुण मेरे में है और आपका ज्ञानगुण आप में मेरा ज्ञानगुण ही मेरे लिए ज्ञान है; क्योंकि मैं तो उसी से जानने का काम कर सकता हूँ, आपके ज्ञानगुण से नहीं। आपका ज्ञानगुण तो मेरे लिए एकप्रकार से ज्ञान नहीं, ज्ञेय है। अन्य ज्ञेयों के समान यह भी एक ज्ञेय है ।निष्कर्ष के रूप में हम यह द्रव्य गुण पर्याय स्व-पर पर घटा सकते है-

द्रव्य -मेरे लिए मेरा आत्मा ज्ञायक है मेरा लिए दूसरों का ज्ञायक ज्ञेय है।दूसरों के लिए मेरा ज्ञायक ज्ञेय है ज्ञायक नहीं।

गुण-आपका ज्ञान गुण मेरे लिए ज्ञेय है और मेरा ज्ञान गुण आपके लिए ज्ञेय है ज्ञान नहीं।

पर्याय - ज्ञायक की वर्तमान समय की ज्ञान की पर्याय जानने का काम करती है वह दूसरों के लिए ज्ञेय है।वह पर्याय दूसरे(अगले) समय ज्ञानरूप से नहीं रहेगी वह ज्ञेय तो सकती है। 
-इत्यलम्

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