क्रमबध्दपर्याय की व्यवहारिकता
क्रमबध्दपर्याय जैनधर्म के ग्रंथो के प्रत्येक अनुयोग में व्याप्त तो है ही , साथ ही साथ हरेक ग्रंथो की प्रत्येक पंक्ति पंक्ति में तिल में तेल की भांति अनुस्यूत भी है| जिसको पढकर हमारा जीवन निर्भार और सहज तो होता ही है साथ ही साथ हमारे मन की आकुलता-व्याकुलता भी अत्यल्पया नष्ट ही हो जाती है| निश्चितया यही परिणाम रहा होगा कि हमारे संस्कृत और हिंदी साहित्य और उसको लिखने वाले कवि भी इससे अछूते नहीं रह पाये है और लोगों का जीवन निर्भार करने हेतु वे अपने साहित्य मे इस सिद्धांत को लेकर आए | मैं तो कहता हूँ चाहे वह कोई भी दार्शनिक हो अगर निरपेक्ष होकर जगत को देखेगा तो वह पायेगा कि- सम्पूर्ण विश्व और उसका प्रत्येक कार्य बिल्कुल सुनियोजित है।जैसे- एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईस्टीन ने तो कह ही दिया कि- कोई भी कार्य अकस्मिक नवीन नहीं होता वे पहले से ही अपने समय पर निश्चित है उसको हम कालचक्र (समयसारणी)पर देख सकते है। अब भले वैज्ञानिक जगत इस बात का ठोक-पीट कर समर्थन न कर किंतु इतना तो निश्चित है कि- आइंस्टीन जैसे बडे वैज्ञानिक के इस कथन से सम्पूर्ण वैज्ञानजगत् इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता।
न, केवल कवि अपितु हमारे जीवन में,बोलचाल में और तो और सूक्ति,मुहावरे तथा लोकोक्ति में भी क्रमबध्दपर्याय ने अपना स्थान विशेष स्थापित कर लिया है जिसको हम प्रतिदिन प्रयोग करते तो है चाह कर भी उसको साहित्य से नहीं निकाल क्योंकि उसको निकालना अपने इतिहास पर कुठाराघात करना है किन्तु उसपर पूर्णतया श्रद्धान नहीं कर पा रहे है न चाहते हुए भी कडवी औषधि समान न तो हम उसे पूर्णता निगल पा रहें है न ही उगल पा रहे है।
क्रमबद्ध पर्याय के उगलने से अनंत संसार का रोग है और निगलने में निरोगता और निर्भारता।किंतु कारण यही है कि- हमारी बुद्धि पर कर्तृत्व इतना घरकर गया है कि – इस सिद्धांत पर हम अमल नहीं कर पा रहे है | चलिये हम जानते है कि किन-किन रूपों में हम क्रमबध्दपर्याय से जुड़े हुए है –
एक बात और जो हमे ध्यान देना चाहिए कि - संस्कृत आदि साहित्य के कवियों ने कही अपने द्वारा उपार्जित किए भाग्य से तो कही भगवान की कृपा से सारे कार्य होते है (जिसकी आलोचना इस लेख के उपांत्य मे कि जावेगी) लेकिन एक बात सुस्पष्ट है कि -तू जो इस दुनिया का अपने आपको कर्ता मान बैठा है या कहे कि घर -घर मे जो आज एक-एक कर्ता बना बैठा है उसको तो सभी कवियों ने जड़ मूल से उखाड़ फेका है | इसके बहव प्रमाण इस प्रकार है -
• संस्कृत कवियों कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय –
अत सर्व प्रथम हम त्रिशतककार भर्तृरिहरि कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय को विचारकर देखते है-
१. “ रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता-
मम्भोदा बहवो बसंति गगने सर्वेऽपि नैतादृशा |
केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः|५१||”
२. “पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्
नोऽलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् |
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः ||९३||”
३.“नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ||९४||”
४. “ तस्मै नमः कर्मणे ||९५||
५. “भाग्यानि पुर्वतापसा खलु सञ्चितानि ,
काले फलन्ति पुरूषस्य यथैव वृक्षा ||९६||”
६. “रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि||९७||”
७. ”नाभाव्यम् भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कृतः ||१०१||” ...आदि...
कवि भर्तृहरि के जीवन मे क्रमबध्यपर्याय इतने भली प्रकार घर कर गई थी कि नीति शतक मे भी इसको बतलाना चाह रहे थे | जहा एक ओर वे अधिकांशतया वित्तोपार्जन की महिमा बताते है तो अन्त्य मे कह देते है कि धन कि प्राप्ति भाग्य से ही संभव है, अन्य प्रकार नहीं |
“ तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः |
भाग्यम् परम् नैव ददाति किंचित् |
अहिर्निशम् वर्षति वारिवाह ||
तथापि पत्रा त्रितय:पलास ||”
तथाहि-
“सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता |
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ||
अहं करोमीति व्यथाभिमानः |
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो ही लोकः ||”
पंचतंत्र -
“अरक्षतिम् तिष्ठति दैवरक्षितं सुररक्षितं दैवहतम् विनश्यति |
जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति||” - (मित्रभेद ,20) पंचतंत्र
“न हि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन |
करतालगतमपिनश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,१०)
“विधाता रचिता या सा लालटेऽक्षरमालिका |
न तां मार्जयितुं शक्ताः स्वबुद्ध्याऽप्यतिपण्डिताः ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,१८३)
“ करोतु विधुरे किं वा विधौ पौरूषम् ||”- (मित्रसम्प्राप्ति ,८८)
“विनाशकाले विपरीतबुद्धि”
गति अनुसार मति हो जाती है ।
• हिंदी कवियों कि दृष्टि में क्रमबध्दपर्याय –
1. “तुलसी असमय के सखा , धीरज धर्म विवेक||
साहित साहस सत्यव्रत , राम भरोसे एक ||”
2. “तुलसी भरोसे राम के निर्भय होके
3. “अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम |
दास कबीरा कह गये सबके दाता राम ||”
1. “जो जैसी करनी करे, सो तैसा फल होय |
बोये पेड़ बबूल का तो आम कहा से होय ||”
• लोकोक्ति- 1.“जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना”
2. ‘‘दाने दाने लिखा है खाने वाले का नाम’’
3. “माली सींचे सौ घना,ऋतु आये फल होय’’
4. “बिन मांगे मोती मिले ,मांगे मिले न भीख”
5. “जो करेगा सो भरेगा”
6. “जो होगा देखा जायेगा”
7. “जो बीत गयी सो बीत गयी”
8. “जो होगा अच्छा होगा “
9. “जो जस करी सो तस फल चाखा”
10. “जा को राखे साइया , मार सके न कोई ||”
11. “कोश कोश पर पानी बदले , पांच कोष पर पानी ||”
12. “हुहिये वही ,जो राम रचि राखा ||”
• लोकन्याय- यदि आप ककतालीय न्याय जैसे अनेक न्यायों पर भी सूक्ष्मता से विचार करेंगे तो आप पायेंगे कि- यह सब क्रमबद्ध पर्याय की ही सिद्धि करते है।
ऐसे कई न्याय क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि करते है।
अंततः यत्र तत्र सर्वत्र यद्वा-तद्वा सम्पूर्ण विश्व क्रमबद्ध पर्यायों से ही निर्वृत है।सभी पदार्थ क्रमबद्ध पर्यायों से अनुस्युत है एवं वाणी स्फोटवाद से भी क्रमबद्धता की सिद्धि है।
जैसे न्याय का प्रमुख विषय सामान्य और विशेष सर्वज्ञ सिद्धि होती है वैसे ही अध्यात्म का प्रमुख विषय सामान्य और विशेष क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि है।छहो द्रव्य अपने अपने आत्मपरिणामों से उपजते हुए तद्रूप है(महासत्ता) यह सामान्य क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि और जीवद्रव्य या कोई भी द्रव्य विशेष अपने अपने आत्मपरिणामों से उपजते हुए तद्रूप है (अवान्तरसत्ता)यह विशेष क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि है। इसके और भी पहलू हो सकते है जो विचारणीय है।
- आप्त जैन
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