बहुत चाहा पास जाना,
किंतु तनिक न पहुंच पाया ,
सोचता था पास होऊंगा,
लेकिन दूर होता जा रहा था।वे तो बैठे मंजिलो में
देखते थे मार्ग अपना,
लेकिन था वो कठिन इतना
मानो कोई-हो-एक सपना
लेकिन वो था सरल इतना
सचमुच में कोई खेल जितना
दो और दो चार जितना
या चार एकम चार जितना
दो शब्द देकर बतला गए ,
अपने पास आने की विधि वे,
किंतु पास होते होते अभी तक,
हम दो दशक भी खो चुके थे ।
अब समझ में आया हे ईश्वर!
मैं पास समझा जिसे अभी तक ,
दूर उतना ही मैं उनके
होते जा रहा था ।
एक बात और जो समझी अभी मैं
कारण था बस एक यही-
"दूर वे नहीं
हम स्वयं से ही होते जा रहे थे"
-आप्त जैन
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