Thursday, November 4, 2021

दूर हम स्वयं से है

 बहुत चाहा पास जाना,

किंतु तनिक न पहुंच पाया ,

सोचता था पास होऊंगा,

लेकिन दूर होता जा रहा था।

वे तो बैठे मंजिलो में
देखते थे मार्ग अपना,
लेकिन था वो कठिन इतना
मानो  कोई-हो-एक सपना

लेकिन वो था सरल इतना
सचमुच में कोई खेल जितना
दो और दो चार जितना
या  चार एकम चार जितना

दो शब्द देकर बतला गए ,
अपने पास आने की विधि वे,
किंतु पास होते होते अभी तक,
हम दो दशक भी खो चुके थे ।

अब समझ में आया हे ईश्वर!
मैं पास समझा जिसे अभी तक ,
दूर उतना ही मैं उनके
होते जा रहा था ।

एक बात और जो समझी अभी मैं
कारण था बस एक यही-
"दूर वे नहीं
हम स्वयं से ही होते जा रहे थे"
                                        -आप्त जैन
                                           

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