सिद्धचक्र-विधान (कविवर संतलालीय) का कलापक्षीय सौंदर्य
णमो सिद्धाणंओम् नमः सिद्धेभ्यः
कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पाने वाले विद्वान कवि थे कविवर संतलाल जी
लगभग 30 उपलब्ध सिद्ध चक्र विधान है लेकिन वह विधान अपने आप को तभी जीवित रख पाता है कि- उसका कलापक्ष कितना उत्कृष्ट है।
इसमें भावपूर्णता के साथ-साथ कवि की काव्यकला भी अपने प्रौढ़रूप में सामने आयी है। । ।
आदिपुराण 👇
कितने हो कवि ऐसी कविता करते हैं जो शब्दोसे तो सुन्दर होती है परन्तु अर्थसे शून्य होती है। उनकी यह कविता लाखकी बनी हुई कंठीके समान उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त नहीं होती।॥६२॥ कितने ही कवि सुन्दर अर्थको पाकर भी उसके योग्य सुन्दर पदयोजनाके बिना सज्जन पुरुषोंको आनन्दित करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते जैसे कि भाग्यसे प्राप्त हुई कृपण मनुष्यकी लक्ष्मी योग्य पद-स्थान योजनाके विना सत्पुरुषोको आनन्दित नहीं कर पाती ।।७० ।।
जिस काव्यमें न तो रीतिकी रमणीयता है, न पदोंका लालित्य है और न रसका ही प्रवाह है उसे काव्य नहीं कहना चाहिए वह तो केवल कानोंको दुःख देनेवाली ग्रामीण भाषा ही है ॥
गुण 👉 10 प्रसाददि गुण (माधुर्य ओज प्रसाद )
भाषा 👉कवि की भाषा भावानुगामिनी, सरल और माधुर्यगुणयुक्त है।यह ब्रजभाषा में लिखा गया है
धन्य ब्रजभाषा तोसी दूसरी न भाषा कोइ
तैनें बानी के विधाता कू बोलिबौ सिखायौ है।
नव सर्ग गते माघे नव शब्दो न विद्यते।
पदलालित्य 👇
शरनं चरनं वरनं करनं, धरनं चरनं मरनं हरनं ।
तरनं भव-वारिधि तारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो।।७।।
रस 👉
विधि ते कवि सब विधि बड़े, यामैं संशय नाहिं।
षटरस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता माहि ।।
वाक्यं रसात्मकं काव्यं
अलौकिक श्रृंगार (आत्म वैभव मुक्ति रूपी स्त्री)
विधान में सर्वत्र भक्तिरस व्याप्त होकर मानों सिद्ध भगवन्तों से साक्षात्कार ही कर रहा है।
वीर रस(पहली पूजन की जयमाला) 👇
लखि मोहशत्रु परचंड जोर, तिस हनन शुक्ल दल ध्यान जोर आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी आरम्भ थाय।। ६।।
हास्य रस
जीवन सतावत, नहि अघावत क्षुधा डाइन सी बनी । सो तुम हनी, तुम ढिग न आवत, जान यह विधि हम ठनी।।
छंद 👉इसमें 47 प्रकार के छन्दों के प्रयोग से ज्ञात होता है कि कवि छन्दशास्त्र के विशेष ज्ञाता थे ।
47 छंद शंखनारी सवैया इकत्तीसा मंदाक्रांता मालिनी वसंततिलका इन्द्रव्रजा हरिगीतिका मोदी मराठा लावनी कामनीमोहन चौबोला छंद लक्ष्मी धरा
विशेषता - जहाँ जहाँ प्रकरण बदल रहा है वहाँ वहां छंद बदलता है
अलंकार
उपमा और रूपक अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग ने काव्यगत सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया है
चित्रांकार
ऊरध अधो सु रेफ सबिंदु हंकार विराजे ।
अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ।।
वर्ग्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिधर ।
अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ।।
पुनि अंत ह्रीं बेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरि नाग को ।
ह्वै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ।।
अभिव्यंजना
नय विभाग बिन वस्तु प्रमाणा, दया भाव बिन निज कल्याणा ।
पंगु सुमेरु चूलिका परसै, गुंग गान आरम्भे स्वर सै।। ४।।
गोखुर में नहिं सिधु समावे, वायस लोक अन्त नहीं पावै । तातें केवल भक्ति भाव तुम, पावन करो अपावन उर हम । ६।।
मौलिकता
1. ज्योतिष समुद्रिक शास्त्र और वास्तु शास्त्र का ज्ञान
पूरब दिशा 👉 अकारादि स्वर
आग्नेय दिशा👉 कवर्ग
दक्षिण दिशा 👉चवर्ग
नैॠत्य दिशा👉टवर्ग
पश्चिम दिशा👉तवर्ग
वायव दिशा👉पवर्ग
उत्तर दिशा 👉यवर्ग
ईशान दिशा👉शेष वर्ण (श,ष,स,ह)
2. चन्दन तुम बंदन हेत, उत्तम मान्य गिना ।
नातर सब काष्ठ समेत, ईंधन ही थपना।॥
3. जेते कछु पुद्गल परमाणु शब्दरूप,
भये हैं, अतीत काल आगे होनहार हैं ।
तिनको अनंत गुण करत अनंतबार,
ऐसे महाराशि रूप धरैं विसतार हैं।
सब ही एकत्र होय सिद्ध परमातमके
मानो गुण गण उच्चरण अर्थ धार है
तौं भी इक समयके अनंत भाग आनंद को
कहत न कहै हम कौन परकार हैं।। १३०।।
कविता लिखना खेल नहीं है पूछो इन फनकारो से
ये सब लोहा काट रहें हैं कागज की तलवारो से।।
संतलाल जी का सिद्ध चक्र विधान अन्य मत के कवियों के सामने रखो तो वो 19वां नहीं 21वां ही सिद्ध होगा
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