Friday, November 5, 2021

अग्रवाल मूल में जैन ही है* ?

 अग्रवाल उत्तर भारत की सम्पन्न व शिक्षित वैश्य जाति है इसने भारत देश के उत्थान में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है, इस जाति के अनुयायी आमतौर पर हिंदू व जैन दोनो धर्मो के पालक रहे है, अग्रवाल जाति का इतिहास राजा अग्रसेन से शुरु होता है, और उनका राज्य महाभारत काल में हरियाणा प्रदेश के हिसार-रोहतक क्षेत्र में विस्तृत था इस जाति की उत्पत्ति के संबंध में जितने भी कथानक है वह सभी यूँ तो काल्पनिक ही है, पर उनपर अगर शोध हो तो वह निश्चित ही अग्रवाल जाति को प्रारंभ से जैन धर्म से जोड़ेंगे। वस्तुतः अग्रवाल भारत की मूल जाति रही है जो विदेशी आर्यो के अत्याचारों से पीड़ित होकर वैश्य वर्ण में आ गई। इसका ही विवेचन हम यहाँ करेंगे

 
परवर्ती वैदिक साहित्य में राजा अग्रसेन की कथा का वर्णन आता है जिसके अनुसार वह महालक्ष्मी के उपासक थे और सूर्यवंशी थे उन्होने एक बार अश्वमेध यज्ञ भी किया था और उसमे बलि देने की बात आई तो उन्होने इससे मना कर दिया ब्राह्मण आर्य यज्ञ के नाम पर हिंसा का तांडव रचाते थे तीर्थंकर नेमिनाथ (महाभारत काल) के काल में उनका वर्चस्व उत्तरी भारत के कई राज्यों पर था।  कई राजा उनकी बात मानकर हिंसक यज्ञो-कर्मकांडो का समर्थन भी करने लगे थे पर अहिंसक राजा अग्रसेन ने इससे स्पष्ट मना कर दिया बलि नहीं देने के कारण ही उन्हें आर्य ब्राह्मणों ने क्षत्रिय वर्ण से बाहर कर दिया तब अग्रसेन राजा ने वैश्य वर्ण स्वीकार किया।
  एक और वैदिक कथानुसार राजा अग्रसेन जब अपने लिए नई राजधानी की खोज में निकले तब उन्हें वर्तमान अग्रोहा के पास (जो उस समय घनघोर जंगल था) एक जगह शेर व गाय एक ही घाट पर जल पीते दिखे राजा अग्रसेन ने सोचा जहाँ पवित्र मैत्री व अहिंसा हिंसक जानवरो में भी हो वहाँ अवश्य ही हमे राजधानी स्थापित करना चाहिए तीर्थंकर के समवशरण में भी शेर व गाय एक ही घाट पर पानी पीते है संभव है कि उस समय वहाँ से तीर्थंकर का समवशरण गुजरा हो जिसके फलस्वरुप गाय व सिंह एक जगह जलपान कर रहे थे।
  इससे यह तथ्य सटीक हो जाता है अग्रसेन राजा कुल परम्परा से शाकाहारी थे एवं वह बाकी राजाओ की तरह आर्य ब्राह्मणों के विचारो से मान्य नहीं थे। उनका अहिंसा में भरपूर विश्वास था। इस तथ्य से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि उन्होने अंत समय में दिगंबर जैन मुनि दीक्षा लेकर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था, चूँकि प्राचीनकाल में जीवन के अंत समय में दीक्षा लेने की परंपरा रही थी।
  अग्रसेन राजा के 18 पुत्रो के नाम पर 18 गोत्रो के नाम पडे इनमे से 3 गोत्र आज भी परवार जैनो में व अग्रवालो में समान है( गोयल,कांसल,बांसल) इससे भी इनकी जैन धर्म से साम्यता ज्ञात होती है। यह कथा इतिहास काल के पूर्व की है जिसके संबंध में प्राचीन ग्रन्थो का अभिप्राय अनुसार अध्ययन ही प्रमाण है।
  अग्रोहा के पुरातत्व की ओर दृष्टि करे तो वहाँ से एक सिक्का खुदाई में प्राप्त हुआ है जिसके एक और वृषभ का चिह्न व दूसरी ओर प्राकृत भाषा में अग्र गणराज्य का उल्लेख है(जो अग्रवाल जाति को सिंधू घाटी सभ्यता से जोडते है।) प्राकृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा रही है तीर्थंकरों ने अपने प्रवचन इसी भाषा में दिए। आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य लोहाचार्य (एक पट्टावली अनुसार आचार्य समन्तभद्र)  भद्दिलपुर(आज का विदिशा) से विहार करते हुए अग्रोहा के निकट पधारे उस समय यहाँ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार बहुत था यहाँ के शासक दिवाकर ने आचार्य की वंदना की व उनसे प्रतिबोध पाकर जैन धर्म के प्रति श्रद्धा और दृढ की। प्राचीन काल में जिस धर्म का पालक राजा होता था उसी धर्म को प्रजा भी मानती थी इसी कारण उस क्षेत्र में रहने वाले सभी जाति के निवासियो ने जैन धर्म का पालन करना शुरु कर दिया। बाद में यहाँ के सभी लोगो ने मिलकर अग्रवाल जाति बनाई उन्हें आचार्य ने काष्टासंघी नाम दिया तब से लेकर अब तक काष्टासंघ की पीठ पर बनने वाले सभी भट्टारक अग्रवाल कुलोत्पन्न ही होते थे। यह घटना दूसरी शताब्दी के आसपास की है। अब तक चंपापुर(बिहार),ग्वालियर,तिजारा(राजस्थान) आदि कई स्थानो से खुदाई में अग्रवाल,अग्रोतक आदि प्रशस्ति लिखी जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। सम्राट अकबर के काल में साहू टोडर अग्रवाल ने मथुरा में 500 से अधिक जैन स्तूप बनवाए थे, अग्रोहा में भी खुदाई में स्तूप निकले है जैन धर्म में तीर्थंकरो की निर्वाण स्थली,मुनियों की समाधि स्थली पर स्तूप बनाने की परंपरा प्राचीनतम रही है अग्रवाल समाज में इस परंपरा का पालन मुगलकाल तक जारी रहा।

*अग्रवाल वैष्णव धर्मी कैसे बने*
  मुगलकाल मे जब जैन धर्मियो पर बहुत संकट आया ऐसे समय में उत्तर भारत में दिगंबर मुनियों का विहार खत्म हो गया तब पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के संत वल्लभाचार्य ने अग्रवाल वैश्यो का हिंदू धर्म में धर्मान्तरण करवाया, यह कार्य आजादी के बाद तक चलता रहा।हरियाणा में हजारो जैन अग्रवाल आर्य समाजी बन गए लाला लाजपतराय दिगंबर जैन अग्रवाल थे पर आर्य समाज से जुड़कर उन्होंने जैन धर्म त्याग दिया। आज भी कई वृद्ध वैष्णव अग्रवाल यह बताते है कि हम बचपन में भाद्रपद मास में जैन मंदिर जाते थे बाद में हमने जैन और वैष्णव दोनो धर्मो को एक ही मानकर जैन गुरु का सानिध्य नहीं मिलने के कारण हिंदू धर्म का पालन करना शुरु कर दिया। कोलकाता के प्रसिद्ध बेलगछिया जैन मंदिर के निर्माता अग्रवाल श्रेष्ठी थे ऐसे कई विशाल मंदिरो का निर्माण अग्रवाल जैन बंधूओ ने करवाया था पर आज सभी जैन धर्म से परिचय टूटने के कारण वैष्णव धर्मी हो गए। आज वैज्ञानिक युग है ऐसे समय में वास्तविक इतिहास को समझकर युवाओ को अपने मूलधर्म के प्रति श्रद्धा बढानी चाहिए व जैन धर्म का अनुसरण करना चाहिए। वस्तुतः देखा जाए तो अग्रवाल समाज की अहिंसा प्रियता ही इसे जैन घोषित करती है।

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